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Monday, January 17, 2011

क्या भोगवाद उन्नति का नाप है और क्या भारतीय संस्कृति आउट आफ़ डेट है ? ----------------------------------- विश्व मोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल (से. नि.)

पूरा परिवेश पश्चिमकी भेंट चढ़ गया है.उसे संस्कारित,योग,आयुर्वेद का अनुसरण कर हम अपने जीवनको उचित शैली में ढाल सकते हैं! आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक


(मानव व्यवहार इतना जटिल है कि उसके विषय में कोई भी कथन यदि 60 प्रतिशत भी सही हो तो उसे सही माना जाना चाहिये।)

मुझे लगता है कि भोगवाद का विषय आज तर्क के तथा समझने समझाने के परे हो गया है। दार्शनिक, साधु या कुछ विवेकशील व्यक्ति ही आज के भोगवाद पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।अन्य लोग तो भोगवाद में मस्त हैं, या उसकी घुड़दौड़ में ही मस्त हैं। आखिर वे प्रश्नचिन्ह क्यों लगाएं? पिछले दस पंद्रह वर्षों में जो आर्थिक प्रगति भारत ने, आइ एम सॉरी, इंडिया ने की है वह इसी भोगवाद की कृपा से ही हुई है ! सैक्सी कारें और स्कूटर, रंगीन टीवी तथा माध्यम सरीखे मनोरंजन गैजैट्स, चर – अचर दूरभाष आदि दूर संचार सुविधाएं, रैफ्रिजरेटर सरीखी सफेद वस्तुएं, कम्प्यूटर और उसका स्पाउज़ इंटरनैट, सैक्सी कपड़े और जूते, शानदार पॉंचसितारा राजसीमहल तथा फास्टफूड जॉइंट्स आदि आदि आज यही तो प्रगति नापने के मापदण्ड हो गए हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ भी इन्हीं का अनुमोदन करता है। जब भोग निश्चित ही जीवन के लिये नितान्त आवश्यक है तब कोई भी बुद्धिमान मनुष्य इस भोगवाद की प्रशंसा ही करेगा, विरोध क्यों ?

यह तो सच है कि भोग निश्चित ही जीवन के लिये नितान्त आवश्यक है। जब जीवन के लिये केवल आवश्यक भोग ही किया जाए तब वह वांछनीय और उचित है; इसमें आवश्यक शब्द का सही अर्थ जीवन दृष्टि पर निर्भर करेगा। भोग किस तरह किया जाता है, कितना किया जाता है और क्यों किया जाता है, यह प्रश्न विचारणीय हैं। वास्तव में इन प्रश्नों के उत्तर भी मनुष्य की जीवनदृष्टि पर निर्भर करते हैं। भोगवाद अपने आप में एक जीवन दृष्टि है, वरन पूर्ण जीवन दृष्टि हो सकती है ! एक प्रसिद्ध अमरीकी विचारक कैन स्कूलैन्ड अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ए गाइडिंग प्रिंसिपल आफ लाइफ’ में पथ प्रदर्शन करते हैं : “ . . .आपके जीवनभर की खेती की फसल आपकी जमीन जायदाद है। यह आपके कठोर श्रम का फल है, आपके बहुमूल्य समय का प्रतिदान है, आपके समय, ऊर्जा तथा बद्धि का उत्पाद है।” इस विचारधारा में मनुष्य पूरी तरह पादार्थिक जीवन दृष्टि से संचालित है। विकीपीडिया में दी गई कन्ज़्यूमरिज़म अर्थात भोगवाद की परिभाषा के अनुसार इसमें मनुष्य का सुख, प्रतिष्ठा, आत्मसम्मान, प्रगति, सफलता, और प्रतिष्ठा उसके भोगवाद के संसाधनों से नापी जाती है; तथा भोगवाद पर आर्थिक तथा सामाजिक प्रगति निर्भर करती है।और यह तो हम सभी जानते हैं कि अधिक से अधिक सुख, कहना चाहिये अनंत सुख तो सभी चाहते हैं अतः भोगवाद के साधन भी जिसके पास अधिकतम हों वही अधिकतम सुखी होगा। भोगवादी गाएगा, ‘मेरा दिल मॉंगे ‘मोर’’। सारा विश्व आज मॉंग रहा है ‘मोर’, तब इंडिया क्यों नहीं ! मजे की बात यह है कि भोगवाद के समर्थन में कोई बौद्धिक आन्दोलन नहीं चलाया गया; मानो कि यह स्वयंभू है; जैसे कि स्वतः ही इसके बीज जो औद्योगिक उन्नति में अंकुरित और प्रस्फुटित हुए थे, बहुल उत्पादन प्रौद्योगिकी के आते ही पल्लवित और पुष्पित हो गए; जैसे कि भोगवाद मनुष्य के सहज स्वभाव में ही है।

ऐसा नहीं है कि पश्चिम में भोगवाद का विरोध न हुआ हो, स्वयं कार्लमार्क्स ने इसका विरोध किया था, किन्तु उन्होनें उसे पूँजीवादी भोगवाद कहकर विरोध किया था, वे साम्यवादी भोगवाद चाहते थे, अर्थात मोटे तौर पर वे शासन द्वारा नियंत्रित भोगवाद चाहते थ। यद्यपि उन्होने कहा था कि पूंजीवाद में वस्तु की पूजा होने लगती है, जो सत्य है, किन्तु पूंजीवादियों ने उनके इस कथन को मात्र साम्यवादी कहकर खारिज कर दिया। कार्लमार्क्स इससे अधिक कुछ कर भी नहीं सकते थे क्योंकि साम्यवाद स्वयं पदार्थवादी है, और भोगवादी है। पूँजीवादी भोगवाद में उद्योगपति इसका नियंत्रण करते हैं, और मजा यह कि भोगवादी सोचता है कि वह अपने भोगवाद का नियंत्रण स्वयं कर रहा है। प्रसिद्ध विचारक थार्नस्टाइन वैब्लैन ने ‘कॉन्स्पिक्युअस कन्ज़म्पशन’ कहकर इसका विरोध किया था, उन्होने कहा कि माध्यमों द्वारा ‘कॉन्स्पिक्युअस कन्ज़म्पशन’ प्रतिष्ठा से जोड़ दिया गया है। विश्व प्रसिद्ध विचारक हैनरी डेविड थोरो ने भी, जो भारतीय अध्यात्म से प्रभावित थे, सादे जीवन का प्रचार किया था। इसके फलस्वरूप ‘स्वैच्छिक सादा जीवन’ का प्रचलन कुछ बढ़ा और लोगों ने बहुत से कार्य अपने ही हाथों से करना शुरु किया। हालांकि पश्चिम के लिये यह बहुत नई बात नहीं थी क्योंकि ईसाई धर्म के कुछ पंथों में सादे जीवन के द्वारा भगवत्कृपा प्राप्त करने के उपदेश हैं; यह दूसरी बात है कि यह सादा जीवन कुछ पंथों द्वारा तीव्र स्वदमन की स्थिति तक ले जाया गया, इस विश्वास के साथ कि यह उन्हें भोगों के लोभ से बचाएगा।

बीसवीं सदी में भी अर्थशास्त्री राल्फ बौर्शाख और स्कॉट नियरिंग, नृशास्त्री एवं कवि गैरी स्नाइडर, कथाकार अर्नैस्ट कैलैनबाख, गाँधीवादी रिचर्ड ग्रैग आदि कुछ व्यक्तियों ने भी भोगवाद का विरोध किया। इसका उद्देश्य पैसे बचाना न होकर भोग की इच्छाओं को कम करना था; साथ ही जीवन का नियंत्रण भी बड़ी बड़ी कम्पनियों के हाथ से बचाने का भी एक ध्येय था। बाद में इस आन्दोलन को प्रकृति संरक्षण आन्दोलन से बहुत बल मिला। विज्ञापनों को भी नज़रअंदाज़ करने की मांग की गई और यू एस में एक या दो ऐसे टीवी तथा रेडियो स्टेशन हैं जो बिलकुल विज्ञापन नहीं देते और वे जनता के सहयोग से ही चलते हैं। यह मार्ग भोगवाद का विरोध करने वालों के लिये अनुकरणीय है।यह आन्दोलन हाशिये पर ही चल रहा है क्योंकि एक तो इस विरोधके मूल में संपुष्ट जीवन दर्शन नहीं है; दूसरे, इस पाश्चात्य प्रकृति - संरक्षण के मूल में मानव का स्वार्थ ही है। तब विभिन्न स्वार्थों की तुलना होने लगती है, यू .एस. कहता है कि वन यदि बचाना है तो हम यू.एस. में बचाकर अमेज़ान में उतने काट लेते हैं क्योंकि यह अधिक लाभदायक है! भोगवाद के विरोध का विरोध स्वच्छंदतावादियों ने भी किया।

वास्तव में आधुनिक प्रौद्योगिकी के द्वारा बहुल उत्पादन से उपलब्ध भोग हेतु सस्ती वस्तुओं के कारण भोगवाद विकसित देशों में सैक्सी तथा रंगीन माध्यम के बल पर कुकरमुत्तों की तरह फलफूल रहा है। और कुछ विचारकों ने भी भोगवाद के प्रचार में उद्योगपतियों का साथ देना शुरु कर दिया है। वे विकासशील देशों में अपनी औद्योगिक शक्ति के बल पर तथा सैक्सी माध्यमों के द्वारा भोगवाद का प्रचार करने में आशातीत सफलता और धनलाभ प्राप्त कर रहे हैं। औद्योगिकी तथा पूंजीवाद प्रेरित भोगवाद ने जीवन की आवश्यकता और विलासिता में भेद मिटाकर विलासिता को ही आवश्यक बना दिया है। भोगवाद से लोगों के जीवनस्तर में उन्नति निश्चित होती है; और आवश्यकता भी क्या व्यक्ति की क्रय शक्ति पर निर्भर नहीं करती! लोग अपनी क्रय शक्ति बढ़ाएं और उसे अनुसार भोग करें। भोगवाद में आखिर क्या खराबी है ?

एक खराबी तो यही है कि यह पृथ्वी समस्त जीवों की आवश्यकता तो पूरी कर सकती है किन्तु एक व्यक्ति का अनियंत्रित भोग नहीं, किन्तु यह तर्क स्वार्थी भोगी को मान्य नहीं ही होगा। हमें और विचार करना चाहिये।मेरी एक कविता की पंक्तियां प्रासंगिक लगती हैं:

जब लोग कंचन मृग का शिकार करेंगे

तब रावण ज़रूर सीता चुराएंगे।”

इस पर विचार करने से भोग की अति का दुखद परिणाम तो समझ में आना चाहिये। ऋषियों ने यह भी अवलोकन किया कि मानवीय संबन्ध के मुख्यतया तीन आधार होते हैं : प्रेम, व्यापार तथा शक्ति; ये आधार अधिकांशतया मिले जुले होते हैं।मां का संतान से, दूकानदार का ग्राहक से तथा नौकरी में मालिक तथा नौकर के संबन्ध क्रमशः इन संबन्धों के उदाहरण हो सकते हैं। भोग ही जीवन मूल्य हो तब जीवन के संबन्ध भी भोगवाद द्वारा निर्धारित होंगे। और भोगवाद का आधार होता है ‘मैं’, अर्थात मनुष्य अपने लिये भोग को सर्वाधिक महत्व देता है। उसके लिये पूरी प्रकृति तथा समाज भोग के साधन ही हैं। यदि वह नौकरी करता है तो उसका ध्येय अपने भोग के लिये संसाधन का अर्जन ही है। इसमें पति तथा पत्नी के संबन्ध भी परस्पर भोग पर आधारित होते हैं; पति अपने वेतन में से एक हिस्सा. तथा पत्नी अपने वेतन में से एक हिस्सा परिवार खर्च के लिये रखकर शेष अपने अपने भोग के लिये रखते हैं। व्यापारियों ने बच्चों को भी अधिकार दिलाने के नाम पर आंदोलन चलाया, तब बच्चों के लिये भी एक हिस्सा बनाना पड़ा। मानव जाति का दुर्भाग्य कि विकसित देशों में बच्चे अपने अधिकार के लिये पुलिस द्वारा बाकायदा न्यायालय ले जाए जाते हैं। तलाक का एक दुष्परिणाम यह तो है कि माता पिता अपने सौतेले बच्चों के साथ संभवतः अपेक्षित प्रेमपूर्ण व्यवहार न कर पाएं, किन्तु यह तो निश्चित है कि सगे माता पिता का अपनी संतान से जो प्रेममय सम्बन्ध है, इस पुलिस की दखल से उसमें दरार पड़ गई है। जो कार्य संस्कृति का है उसे संस्कृति को ही करने देना चाहिये। पाश्चात्य व्यक्तिवाद ने व्यक्ति को समाज की अपेक्षा प्राथमिकता देकर पहिले ही समाज में ही विघटन डाल दिया था, अब भोगवाद ने परिवार में भी उससे भयंकर विघटन डाल दिया है। इनको जोड़ने का और इनमें सहयोग का सूत्र अब मात्र भोग रह गया है। इसमें मनुष्य तथा पशु में अन्तर मुख्यतया भोगवाद की सामग्री का ही अंतर होता है। मनुष्य तथा पशु में भोग के गुण यथा ‘आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन’ एक समान होते हैं, तथा उनमें अंतर नैतिकता, प्रेम, त्याग आदि दैवीय ( वास्तव में मानवीय) गुणों का होता है। जब भोग प्रधान हो गया तब मानवीय गुण गौड़ से गौड़तर होते जाते हैं। निस्संदेह भोगवाद मनुष्य को पशु बना देता है और अनियंत्रित भोगवाद उसे जंगली खूंख्वार पशु बना देता है। यू .एस आदि विकसित देशों में यह व्यवहार सभ्यता की चादर के नीचे चल रहा है। यह सब राक्षसी व्यवहार हम अब अपने समाज में, विशेषकर महानगरों में चुपचाप देख रहे हैं। तब क्या मानवीयता बचेगी? अनेक पाश्चात्य विचारकों को इसमें संदेह है, वे भारत की ओर आशा से देख रहे हैं। इसका आशाजनक उत्तर भारतीय संस्कृति में ही मिल सकता है, जो भारतीय संस्कृति अब व्यवहार में नहीं बची है किन्तु सिद्धान्तों में अभी भी बची है। यदि हम भारत में अपनी उदात्त संस्कृति के पुनर्जागरण के लिये कुछ आंदोलन नहीं करते हैं तब मानवीयता का भविष्य उज्ज्वल नहीं।

भारतीय संस्कृति को मैं इस अवसर के लिये वैदिक संस्कृति कहूँगा; इसके पहिले कि कोई सैक्युलर आदमी लाल झंडा लेकर खड़ा हो जाए और कहे कि भारतीय संस्कृति वैदिक संस्कृति नहीं वरन गंगा जमुनी संस्कृति है जिसमें अनेकानेक जातियों का भी योगदान है; मैं इसका विरोध न करते हुए; भारत के पूर्व राष्ट्रपति महामना ए .पी .जे .अब्दुल कलाम को उद्धृत करना चाहता हूं : “वेद भारत के सबसे पुराने तथा सर्वाधिक मूल्यवान रत्नकोष हैं।भारतीय संस्कृति की आत्मा वेदों में निवास करती है।” (दीनानाथ मिश्र, ‘फ्रैंकली यौर्स कॉलम’, ‘पायोनियर, अंतिम सप्ताह, अक्टोबर 05 )।वैदिक संस्कृति का क्षितिज बहुत विशाल है, मैं यहां उसका अपने विषय की दृष्टि से संबन्धित ज्ञान ही लूंगा। वैदिक संस्कृति में जीवन की मूल प्रेरणाओं की दृष्टि से केवल हिन्दुओं का नहीं वरन समस्त मानव विकास का दिग्दर्शन है। वैदिक संस्कृति जो संस्कार देती है वह शिशु के मानव बनने के विकास में मानवीय संवेदनाओं सहित जीवन के अभ्युदय तथा निश्रेयस दोनों सिद्ध करने में सहायता करती है।

यह वेदों से ही निसृत होता है कि भोग तो मानव में सहज व्यवहार है,।कठोपनिषद की तीसरी वल्ली के चौथे मंत्र में स्पष्ट कहा है :

आत्मेंद्रिय मनोयुक्तं भोक्तेत्याहुः मनीषिणः।।” अर्थात, ‘जब मनुष्य के मन तथा इंद्रियां मिलकर काम करती हैं तब वह भोक्ता कहलाता है।’ और मानवीय संस्कार न मिलने पर यह सहज वृत्ति भोगवाद में परिणित हो जाती है। वैज्ञानिकों तथा अन्य दार्शनिकों द्वारा 'अतिजीविता और संतति की सुरक्षित प्रगति' जीवन की मूल प्रेरणा मानी जाती है। इसके लिये या तो अन्य जाति का विनाश या प्रेमपूर्वक उससे सामंजस्य दो ही मार्ग हैं। अन्य का विनाश भोगवाद को बढ़ाता है, और भोगवाद अन्य के विनाश को। वैदिक संस्कृति ने प्रेम का मार्ग ही उपयुक्त समझकर अपनाया है, इसमें सम्यक भोग को बढ़ावा मिलता है। साथ ही वैदिक ऋषियों ने कहा कि सभी को अपने अपने मार्गों पर चलने की स्वतंत्रता देना ही उचित है, और उदारता के मंत्र ‘एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति’ का भी उद्घोष उन्होने ही किया। इसके साथ ही जीवन जीने के मार्गों का भी उन्होने अन्वेषण किया, केवल गुफा में बैठकर ध्यान लगाकर नहीं, वरन जीवन की कर्मभूमि में रचबसकर किया।

कठोपनिषद की चतुर्थ वल्ली के प्रथम मंत्र में कहा है :

परांचिखानिव्यतृणत् स्वयंभूःतस्मात् परांग पश्यति नान्तरात्मन्।”

परमात्मा ने इंद्रियों को बाहर की ओर जानेवाला बनाया है, इसलिये ही वह बाहर की ओर देखता है, अन्दर अर्थात आत्मा की ओर नहीं।’ इच्छाओं के विषय में गीता के दूसरे अध्याय के 62वें श्लोक में श्रीकृष्ण ने कहा है,

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूप जायते, संगात्संजायते कामः . . .”, अर्थात, ’भोग्य वस्तुओं के मन में लाने से उनकी इच्छाएं उत्पन्न होती हैं, अर्थात इंद्रियों और पदार्थों के संयोग से मन में इच्छाएं उत्पन्न होती हैं।’ ये इंद्रियां जीवन की मूल प्रेरणा के अनुसार भोग की इच्छा पूरी करना चाहती हैं। प्रकृति ने हमें ऐसा बनाया है कि भोग करने में सुख मिलता है, और सुख की चाह हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इस तरह जीवन में भोग स्वाभाविक है, और आवश्यक भी।

ऋग्वेद की ऋचाएं मुख्यतया देवी देवताओं की स्तुतियां हैं, जिनका उद्देश्य मनुष्य को प्रेरणा देकर आनन्द और उत्साहपूर्वक जीवन जीते हुए देवत्व की ओर ले जाना है। वेदों के संहिता, ब्राह्मण तथा आरण्यक विभागों में (संहिता को पंडितजन वेद कहते हैं, ब्राह्मण तथा आरण्यक व्याख्याएं हैं संहिता के मंत्रों की) वर्णित यज्ञों का प्रमुख उद्देश्य जीवन में कामनाओं की पूर्ति के लिये संसाधन प्राप्त करना है, अर्थात भोग ही है। वेदों के चार विभागों में उद्देश्यों के आधार पर विभाजन तो हैं किन्तु वे अभेद्य नहीं हैं। संहिता के मंत्रों की कर्मकाण्डी व्याख्या ब्राह्मण में तथा आध्यात्मिक व्याख्या आरण्यकों में मिलती है। ब्राह्मण तथा उपनिषद के बीच आरण्यक एक सेतु का कार्य करते हैं। यजुर्वेद का विषय मुख्यतया कर्मकाण्ड है, जिसके ब्राह्मणों में अश्वमेध से लेकर पुरुषमेध, पितृमेध और सर्वमेध तक के यज्ञों का, तथा अन्य यज्ञों का कारण - कार्य सहित वर्णन है जो पादार्थिक समृद्धि के लिये अनुशंसित हैं। किन्तु उसमें पुरुष सूक्त जैसा आध्यात्मिक सूक्त भी है; वैसे तो ईशावास्य उपनिषद शुक्ल यजुर्वेद की संहिता का ही अंश है। यज्ञ शब्द के तीनों अर्थ, यथा अभिधा, लक्षणा और व्यंजना उपयोग में आते हैं। उपनिषदों में त्याग, समन्वय तथा अमृतत्व की भावना प्रचुर है, यद्यपि वेदों के अन्य तीनों विभागों में भी दान तथा त्याग की भावनाएं मिलती हैं। दान तथा इदन्नमम् की भावनाओं के साथ, यज्ञों तथा सूक्तों के मुख्य प्रयोजन स्वर्ग, पुत्र, यश, तथा धन आदि की प्राप्ति हैं; यहां तक कि स्त्री प्राप्ति आदि के लिये जादू टोने भी हैं। ऋग्वेद में भी, जो कि ज्ञान प्रधान है, जादू टोने संबन्धित 40 ऋचाएं हैं। यह ध्यातव्य है कि वैदिक काल में इन संसाधनों के अर्जन के आधार में अर्थात भोग में धर्म या नैतिकता थी जिसे बल देने के लिये पाप का डर भी था। उपनिषदों के पूर्व तीन पुरुषार्थ ही प्रधान थे, धर्म, अर्थ तथा काम। मोक्ष या अमृतत्व या सच्चिदानन्द तो उपनिषद काल में चौथा पुरुषार्थ स्थापित हुआ, जब यह ज्ञान हुआ कि भोग से ऐसा सुख नहीं मिल सकता जिससे तृप्ति तथा शांति प्राप्त हो। क्योंकि चार्वाक दर्शन का ‘ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत’ भी लोगों ने भोगकर देख लिया था; जिसमें भोग के लिये नैतिकता को भी धता बता दिया गया था। दृष्टव्य है कि अनुभव तथा चिंतन के परिणामस्वरूप वेदों तथा अन्य शास्त्रों में चार्वाक दर्शन का सदा ही तिरस्कार किया गया है। अर्थात वेदों में भोगवाद को स्वीकार करते हुए अनैतिक भोगवाद को निश्चित ही अस्वीकार किया गया है, इसीलिये स्वर्ग की प्राप्ति के लिये पुण्यकर्म करना आवश्यक है। और आज ‘ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत’ समाज में सम्मान्य है, बैंकों के कार्य तथा पादार्थिक उन्नति इस सिद्वान्त पर कार्य कर रहे हैं। अतएव वैदिक भोगवाद आज के औद्योगिकी भोगवाद से भिन्न था। वेदों में अतिभोग का सीधा विरोध कम ही मिलता है क्योंकि वहां तो अर्थाजन धर्मसम्मत विधियों द्वारा ही सम्मान्य था; यद्यपि अतिभोग पर नियंत्रण रखने के लिये प्रकृति संरक्षण की भावना निश्चित मिलती है, किन्तु वह भावना स्वार्थ की दृष्टि से नहीं, वरन ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की दृष्टि पर आधारित है। इसीलिये पृथ्वी को माता का स्थान दिया गया है। अथर्ववेद में ‘माता भूमिः पुत्रोअहं पृथिव्याः’, मंत्र का उद्घोष है।

वेदों का विकास काल सहस्रों वर्ष रहा है, जिसमें ऋषियों ने जीवन के विकास तथा सुख की खोज के लिये अनुसंधान किये हैं।’क्या भोग से सच्चा अर्थात संतोषजनक सुख मिल सकता है?’, इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिये प्रयोग और अवलोकन किये गए। उन्होने सहस्रों वर्षों भोगयुक्त जीवनों के अवलोकन से देखा कि भोग से मनुष्य तृप्त न होकर भोगों की दौड़ में ही लगा रहकर, सुख दुख के चक्र में फँसकर उत्तेजित, चिंतित और अंततः असंतुष्ट ही रहता है। उदाहरणार्थ, एक तरफ, राजा ययाति की भोग कामना इतनी तीव्र होती है कि वे, स्वार्थ में अंधे होकर, अपने पुत्र से ही उसका यौवन मांग बैठते हैं, और देखते हैं कि वे उसे भोगकर भी संतुष्ट नहीं हो पाते। इस घटना के द्वारा भोग की अति से भी असंतुष्टि तथा परिवार का टूटना भी दिख जाता है। दूसरी तरफ, वामाचार या वामतंत्र भी है। इसमें जो प्रयोग ऋषियों ने किये वे सुख की खोज में अद्वितीय तो हैं ही उनके परिणाम विश्वसनीय भी हैं। वामाचार में प्रत्येक साधक को उसकी कामना और क्षमता के अनुसार भोग करने के संसाधन दिये जाते थे, जिन्हें पंच मकार कहते हैं, यथा, मांस, मदिरा, मछली, मुद्रा तथा मैथुन। इस वामाचार को राजाओं का भी प्रश्रय प्राप्त था जिनकी सहायता से ऐसी साधना संभव हो सकती थी। इन साधकों के अतिभोग का उद्देश्य वास्तव में मोक्ष या सच्चे सुख की प्राप्ति था, किन्तु उन्हें वह नहीं मिला। उन्होने भी देखा कि शरीर की क्षमता समाप्त होने लगती है किन्तु कामनाएं यदि बढ़ती नहीं तो कम भी नहीं होतीं।

इस तरह के प्रयोगों के चलते, ऋषियों ने बाहर की ओर न जाकर अंदर अर्थात आत्मा की ओर जाना भी प्रारंभ किया, और इसमें कालान्तर में उन्होने अनंत आनन्द और संतोष प्राप्त किया। ऐसे आन्तरिक अनुसंधान और उनके अनुभव उपनिषदों में वर्णित हैं। उदाहरणार्थ, कठोपनिषद में जब नचिकेता यम से तीसरे वरदान में आत्मज्ञान मांगता है, तब वे उसे आत्मज्ञान की कठिनता का आभास देते हुए सलाह देते हैं कि वह पृथ्वी पर राज्य के साथ जितने सुख उपलब्ध हैं, उनसे भी अधिक सुख मांगे, वे सब उसे देने को तैयार हैं। किन्तु नचिकेता ने, यह कहकर कि ‘न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो’, (धन से मनुष्य तृप्त नहीं हो सकता) आत्मज्ञान ही मांगा। यम द्वारा प्रदत्त ज्ञान के निष्कर्ष का एक मंत्र है :

यथा सर्वे प्रमुच्यंते कामा ये अस्य हृदिश्रिता :, अथ मर्त्यो अमृतः भवति अत्र ब्रह्म समश्नुते।” अर्थात जब मनुष्य हृदय में स्थित कामनाओं से मुक्त हो जाता है, तभी वह मरणशील मनुष्य अमरता प्राप्त कर लेता है और यहीं ब्रह्म अर्थात परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। सत्, चित् और आनन्द ही ब्रह्म के पर्याय हैं। अर्थात उसे अनन्त आनन्द की प्राप्ति हो जाती है, फिर उसे एंद्रिय सुखों की हाय हाय नहीं रहती। यहां कामना से मुक्त होने का अर्थ भोग की कामनाओं से मुक्ति ही है। भोग की कामनाओं से मुक्त होना एक लम्बा विषय है जिस पर चर्चा यहां अभीष्ट नहीं; किन्तु संक्षेप में ईशावास्य उपनिषद के प्रथम मंत्र के द्वारा महत्वपूर्ण प्रकाश डाला जा सकता है :

ईशावास्यं इदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत। तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा ग्रधः कस्यस्विधनम्।।” ‘इस परिवर्तनशील संसार में जो कुछ भी है वह सब ईश्वर से व्याप्त है। इस संसार का त्यागपूर्वक भोग करो, किसी अन्य के स्वर्ण पर मत ललचाओ।’ इस मंत्र में दो सर्वाधिक विरोधी अवधारणाओं का अद्वितीय समन्वय किया गया है।यह समन्वयित अवधारणा विश्व में केवल भारत में ही मिलती है।यहां ‘त्याग’ शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है।इसे वेदान्त की प्रस्थानत्रयी के ग्रन्थ श्रीमद्भगवत गीता में समुचित रूप से समझाया गया है। 18वें अध्याय के प्रथम श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं :

काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्यासं कवयोविदु :। सर्वकर्मफल त्यागं प्राहु :त्यागं विचक्षणा :।।’ कितने ही पंडितजन स्त्री, पुत्र और धन के अर्जन आदि काम्य कार्मों के त्याग को ही त्याग कहते हैं। किन्तु विचारशील विद्वान कर्मों के फल के त्याग को ही त्याग कहते हैं।और नौवें श्लोक में वे इस अर्थ की पुष्टि करते हैं :

कार्यं इत्येव यत्कर्म नियतं क्रियते अर्जुन।संगं त्यक्त्वा फलं चैव स त्याग : सात्विको मत :।।” ‘आसक्ति तथा फल के त्याग के साथ ‘नियत कर्तव्यों’ को करना ही सात्विक त्याग है।’

यह दृष्टव्य है कि उपनिषदों के इस त्यागमय भोग की अवधारणा में तथा वेदों के भोग की अवधारणा में विरोध है। वेद वर्णित भोग में ऐंद्रिय सुख की अपेक्षा है जब कि औपनिषिदिक भोग में ऐंद्रिय सुख ध्येय नहीं है यद्यपि वह केवल इसलिये भी त्याज्य नहीं है कि वह ऐंद्रिय है। ऋषियों ने यह भी अवलोकन किया कि सहज भोग का विरोध नहीं करना है, त्यागमय भोग की आवश्यकता भोग करने के बाद ही समझ में आती है। इसीलिये उन्होने जीवन को चार आश्रमों बॉंटा, जीवन जीने के लिये पशुओं के बरअक्स, मनुष्य को शिक्षा नितान्त आवश्यक है, अतएव ब्रह्मचर्याश्रम आवश्यक है; संसार में जीवन चलना चाहिये और भोग भी करना चाहिये, इसलिये गृहस्थाश्रम; संसार में मन इंद्रियों द्वारा बाहर ही बाहर जीवन जीने के बाद तथा भोग की सीमा समझने के बाद, अपने अन्दर जाकर आत्मा का दर्शन करने के लिये अरण्याश्रम, तथा ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने से समाज के प्रति जो सेवाभाव उत्पन्न होता है उसे पूरा करने के लिये सन्यासाश्रम। और इस प्रगति को ऋषियों ने बिना भोग की निन्दा किये हुए समझाया है। कठोपनिषद में ही नचिकेता यम से दूसरे वरदान में सामान्य जन के लिये गृहस्थाश्रम में ऐसे ही स्वर्गिक भोगों को उपलब्ध कराने वाले यज्ञ का वरदान मांगता है जो उसे मिलता है। किन्तु तीसरे वरदान में वह भोगप्रद सुख के स्थान पर अरण्याश्रम हेतु सच्चा सुख अर्थात आत्मज्ञान मांगता है।अर्थात वह वेदों के भोग को नकारता नहीं है, यद्यपि वह स्वयं उऩ्हें अपने लिये नहीं माँगता। गीता में, जो कि वैदिक काल के अन्त समय की रचना है, श्रीकृष्ण यज्ञों की प्रशंसा तो करते हैं किन्तु उनकी सीमा दर्शाते हुए, यथा नौवें अध्याय के 21 वें श्लोक में कहते हैं :

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति। एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्नागतागतं कामकामा लभंते।।’ ‘वे लोग जो यज्ञादि कर्मों से स्वर्गलोक प्राप्त करते हैं, पुण्यों के क्षीण होने पर बारबार मृत्यु लोक में जन्म लेते हैं।’ किन्तु दूसरे अध्याय के 42से 44 वें श्लोक में वे वेदों तथा आत्यंतिक भोगों की निन्दा करते हुए कहते हैं :

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्ति अविपश्चित:। वेद वादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन :।।

कामात्मान : स्वर्गपराजन्मकर्मफल प्रदाम् । क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् । व्यसायात्मिका बुद्धि : समाधौ न विधीयते।।

जिनकी बुद्धि में वेदों में वर्णित स्वर्ग ही कर्मफल द्वारा प्राप्य सर्वश्रेष्ठ भोग है, उससे श्रेष्ठ कुछ अन्य नहीं है, जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, ऐसे विवेकहीन व्यक्ति भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये अनेक प्रकार के कर्मों की बहुत सी क्रियाओं का श्रांगारिक भाषा में वर्णन करते हैं; जब कि ऐसे कर्मों का फल पुनर्जन्म में होता है, अर्थात मोक्ष नहीं मिलता।ऐसी वाणी द्वारा जिनका मन हर लिया गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्य में आसक्त हैं उनकी बुद्धि परमात्मा में एकाग्र नहीं होती।’ यहां पर वेदों में वर्णित भोग की निंदा करते हुए उसका निश्चित नकार है, जिसकी पुष्टि अगले श्लोक में होती है :

त्रैगुण्य विषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। निर्द्वन्द्वो नित्य सत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।

वेद तीनों गुणों अर्थात सत्व, रज तथा तमस् की अर्थात एंद्रिय भोग की बात करते हैं। अतः अर्जुन तुम तीनों गुणों से मुक्त हो; उन हर्ष शोक, सुख दुख आदि द्वन्द्वों से मुक्त होकर, सांसारिक उपभोग की वस्तुओं में न उलझकर चेतन तत्त्व में स्थित होकर आत्मा का दर्शन करो।’ दृष्टव्य यह है कि उपनिषदों में भोग की वर्जना नहीं है, जो जीवन के लिये आवश्यक है वह भोग करना है, केवल भोग के लिये भोग की वर्जना है। भोगों की कामना नहीं करना है, संक्षेप में यही त्यागमय भोग है, जिससे भौतिक जीवन भी सुखी रहता है, और मानसिक जीवन भी क्योंकि तब मनुष्य परिहार्य दुखों में नहीं फँसता; वह औद्योगिकी भोगवाद में फँसकर पशु या राक्षस नहीं बनता, उसमें मानवता बनी रहती है। यह गलत भावना भी प्रचलित है कि भारतीय धर्म निवृत्ति मार्गी हैं जो जीवन से दूर ले जाते हैं। कुछ मार्ग ऐसे हो सकते हैं, किन्तु अनेक तो गृह्स्थाश्रम में रहते हुए निवृत्ति की बात करते हैं।ईशावास्य के 11 वें मंत्र में कहा है :

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयंसह।

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते।।

इसका अर्थ हे कि जीवन में सांसारिक विद्या की आवश्यकता है जिससे इस संसार की जीवन यात्रा पूरी होती है; साथ ही अध्यात्म विद्या की भी आवश्यकता है जिससे मनुष्य को अमरत्व अर्थात सच्चा सुख प्राप्त होता है।

एक हजार वर्षों की गुलामी के कारण यह भारतीय संस्कृति अब हमारे व्यवहार में से लुप्त हो रही है, अतः इसकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य बनता है। संस्कृति भाषा, भूषा, भजन, भोजन, व्यवहार आदि के द्वारा संचरित होती है। संस्कृति के इन सभी वाहनों पर आज विदेशी भाषा सवार है, तब इसमें क्या आश्चर्य कि हम अपनी संस्कृति तेजी से खो रहे हैं।संस्कृति के सभी वाहनों को पुष्ट करना हमारा प्रथम कर्तव्य हो जाता है।चूंकि भाषा संस्कृति का सर्वाधिक शक्तिशाली माध्यम है, भाषा पर हमें विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। स्वतंत्रता पश्चात लिये गए गलत निर्णयों के कारण अंग्रेजी हम पर आज भी राज्य कर रही है। भारत के विकास करने के लिये पाश्चात्य सभ्यता की नकल करना अनिवार्य माना गया था और माना जा रहा है। फलस्वरूप हम पाश्चात्य संस्कृति के सभी अंगों की नकल करने में गौरव का अनुभव करते हैं; जब कि मानवता के लिये आवश्यक ज्ञान हम उन्हें निश्चित सिखा सकते हैं। अंग्रेजी आज रोजी रोटी की भाषा है अतः लोग चाहते हुए या न चाहते हुए अंग्रेजी की गुलामी कर रहे हैं। हमें भारतीय भाषाओं में ही अपना जीवन जीना चाहिये, तभी हमारी संस्कृति जीवित रहेगी, और हम विज्ञान में अग्रणी पंक्ति में आ सकेंगे और इस विप्रौ युग में सम्मानपूर्वक रह सकेंगे। यह में किसी देश के प्रति अंधभक्ति के कारण नहीं कह रहा हूं, वरन इसलिये कि वह मानवता को जीवित रखेगी।मेरा तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि हम अंग्रेजी न पढ़ें, अवश्य पढ़ें, किन्तु एक अत्यंत उपयोगी विदेशी भाषा की तरह पढ़ें।किसी भी हालत में अंग्रेजी रोजी रोटी की भाषा न बनी रहे।अंग्रेजी का ज्ञान भारतीयों के लिये आवश्यक है, किन्तु सभी भारतीयों के लिये नहीं; मात्र दो या चार प्रतिशत लोगों के लिये अंग्रेजी सीखना देश की प्रगति के लिये पर्याप्त होगा। जब अंग्रेजी भाषा को प्राप्त विशेष आर्थिक शक्ति समाप्त हो जाएगी तब अंग्रेजी के लिये जो मोह है वह स्वतः ही समाप्त हो जाएगा।

यह विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी (विप्रौ) का युग है, विशेषकर कम्प्यूटर, संचार तथा जैव प्रौद्योगिकी का युग है। चूंकि हम विप्रौ में पिछड़े हुए हैं, हमें यह ज्ञान बाहर से लेना अनिवार्य है। इसके लिये कुछ ही लोगों के द्वारा अंग्रेजी सीखने से हमारा वांछित कार्य हो सकेगा। साथ ही यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि जब तक हम अंग्रेजी में विज्ञान पढ़ते रहेंगे हम विप्रौ में अग्रिम पंक्ति में नहीं आ सकेंगे। उपग्रह के क्षेत्र में हमारी प्रगति प्रशंसनीय अवश्य है किन्तु यह एक अपवाद है। सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में भी हम अधिकांशतया कुशल 'कुली' ही पैदा कर रहे हैं। विज्ञान अंग्रेजी भाषा में हमें 1835 से पढ़ाया जा रहा है, और हमने सत्येंद्र नाथ बोस के समान एक दो वैज्ञानिक पैदा भी किये, किन्तु रमन के समान नोबल पुरस्कृत एक ही कर पाए। वैज्ञानिक अनुसंधान में हमारे प्रपत्रों की संख्या, इज़राएल से तो तुलना ही न करें, दक्षिण कोरिया जैसे देशों से भी कम रहती है, क्योंकि विदेशी भाषा में किसी का भी स्वतंत्र सोच, नवीकरण तथा आविष्कार की प्रवृत्ति का विकास कम ही होता है। ये देश सारी शिक्षा अपनी मातृभाषा में ही करते हैं।इज़राएल की आबादी भारत की दशमांश है और विज्ञान में उन्हें हमसे कई गुने नोबल पुरस्कार मिलते हैं, क्यों? मातृभाषा में सीखे गए ज्ञान का ही सृजनात्मक उपयोग हो सकता है, क्योंकि सृजन की भाषा का मातृभाषा होना स्वाभाविक है। अंग्रेजी रोटी कमाने के लिये पढ़ी जाती है तथा जीवन मातृभाषा में जिया जाता है। इससे एक तो हीन भावना पैदा हो जाती है और दूसरे स्वयं व्यक्ति के व्यक्तित्व में दरार पड़ जाती है। हम अधिकतर समस्याओं के हल के लिये पश्चिम का ही मुंह ताकते रहते हैं। वैज्ञानिक समझ का भी विकास नहीं हो पाता, और न उसका शिक्षित व्यक्तियों द्वारा प्रसार। सारे देश का नुकसान होता है, और देश के गैर अंग्रेजी पढ़े व्यक्तियों की प्रतिभा का उपयोग नहीं हो पाता।अतएव समस्त शिक्षा का विकसित मातृभाषाओं में ही होना ज़रूरी है।हिंदी, गुजराती, मराठी, बांग्ला, कन्नड़, तमिल, तेलुगु, मलयालम, उड़िया आदि भाषाओं में यह शक्ति है कि वे आधुनिकतम विप्रौ की शिक्षा भी इनमें दे सकती हैं।हिन्दी में अभी तक 5 लाख से भी अधिक वैज्ञानिक शब्दों का निर्माण हो चुका है और शब्दावली आयोग यह कार्य लगातार कर रहा है।ऐसा करने से हम विप्रौ में भी बढ़ते रहेंगे तथा हमारी संस्कृति हमें राक्षसी भोगवाद से बचाकर मानव बनाती रहेगी।

यदि आप चाहते हैं कि आपका पौत्र निकट भविष्य में आपके वृद्ध पुत्र अर्थात अपने पिता को वृद्धाश्रम में न छोड़े, उसका अपनी पत्नियों से तलाक न होता रहे, तथा वह एक सुखी परिविरिक जीवन व्यतीत करे, उसमें मानवीय संवेदनाएं बनी रहें तब आपको चाहिये कि आप अपनी संतान तथा उनकी संतान की शिक्षा मातृभाषा में कराएं। इसके लिये आपको संगठन बनाकर आन्दोलन करना पड़ेगा।किसी को भी गुलामी से मुक्ति क्या बिना आन्दोलन के मिल सकी है? और आप चाहे राजनैतिक रूप से स्वतंत्र हों, किन्तु भाषा के रूप में आप स्वतंत्र नहीं हैं, अर्थात आपके सोच विचार तथा जीवन शैली भी पश्चिम से न केवलअत्यधिक प्रभावित हैं, वरन नियंत्रित हैं। आप अपनी सांस्कृतिक स्वतंत्रता भी मस्त मस्त होकर या करोड़पति बनने के चक्कर में खो रहे हैं। आज पढ़े लिखे व्यक्ति इस वैश्वीकरण के युग में शान से अंतर्राष्ट्रीय बनना चाहते हैं। बिना अपनी भाषाई स्वतंत्रता प्राप्त किये आपका और इस देश का भविष्य उज्ज्वल नहीं है। पश्चिम के बाजारू ग्लोबल विलेज के औद्योगिकी भोगवाद के स्थान पर हम तो वसुधैव कुटुम्बकम् तथा त्यागमय भोग को मानने वाले हैं।पहले आप अपने राष्ट्र की सम्मानजनक पहचान तो बनायें, तब अंतर्राष्ट्रीय बनें।जय मातृभाषा जयमातृभूमि जय हिन्द। .

Monday, January 10, 2011

लाल बहादुर शास्त्री (जीवन आदर्श, प्रतिभा)

लाल बहादुर शास्त्री (जीवन आदर्श, प्रतिभा) 

लाल बहादुर शास्त्री जी का जन्म शारदा श्रीवास्तव प्रसाद, स्कूल अध्यापक व रामदुलारी देवी. के घर मुगलसराय(अंग्रेजी शासन के एकीकृत प्रान्त), में हुआ जो बादमें अलाहाबाद [1] के रेवेनुए ऑफिस में बाबू हो गए ! बालक जब 3 माह का था गंगा के घाट पर माँ की गोद से फिसल कर चरवाहे की टोकरी (cowherder's basket) में जा गिरा! चरवाहे, के कोई संतान नहीं थी उसने बालक को इश्वर का उपहार मान घर ले गया ! लाल बहादुर के माता पिता ने पुलिस में बालक के खोने की सुचना लिखी तो पुलिस ने बालक को खोज निकला और माता पिता को सौंप दिया[2].
बालक डेढ़ वर्ष का था जब पिता का साया उठने पर माता उसे व उसकी 2 बहनों के साथ लेकर मायके चली गई तथा वहीँ रहने लगी[3]. लाल बहादुर 10 वर्ष की आयु तक अपने नाना हजारी लाल के घर रहे! तथा मुगलसराय के रेलवे स्कुल में कक्षा IV शिक्षा ली, वहां उच्च विद्यालय न होने के कारण बालक को वाराणसी भेजा गया जहाँ वह अपने मामा के साथ रहे, तथा आगे की शिक्षा हरीशचन्द्र हाई स्कूल से प्राप्त की ! बनारस रहते एक बार लाल बहादुर अपने मित्रों के साथ गंगा के दूसरे तट मेला देखने गए! वापसी में नाव के लिए पैसे नहीं थे! किसी मित्र से उधार न मांग कर, बालक लाल बहादुर नदी में कूदते हुए उसे तैरकर पार कर गए[4].
बाल्यकाल में, लाल बहादुर पुताकें पढ़ना भाता था विशेषकर गुरु नानक के verses. He revered भारतीय राष्ट्रवादी, समाज सुधारक एवं स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक .वाराणसी 1915 में महात्मा  गाँधी का भाषण सुनने के पश्चात् लाल बहादुर ने अपना जीवन देश सेवा को समर्पित कर दिया[5] !  महात्मा  गाँधी के असहयोग आन्दोलन 1921 में लाल बहादुर ने निषेधाज्ञा का उलंघन करते प्रदर्शनों में भाग लिया ! जिस पर उन्हें बंदी बनाया गया किन्तु अवयस्क होने के कारण छूट गए[6] ! फिर वे काशी विद्यापीठ वाराणसी में भर्ती हुए! वहां के 4 वर्षों में वे डा. भगवान दास के lectures on philosophy से अत्यधिक प्रभावित हुए! तथा राष्ट्रवादी में भर्ती हो गए ! काशी विद्यापीठ से 1926, शिक्षा पूरी करने पर उन्हें शास्त्री की उपाधि से विभूषित किया गया जो विद्या पीठ की सनातक की उपाधि  है, और उनके नाम का अंश बन गया[3] ! वे सर्वेन्ट्स ऑफ़ द पीपल सोसाईटी आजीवन सदस्य बन कर मुजफ्फरपुर में हरिजनॉं के उत्थान में कार्य करना आरंभ कर दिया बाद में संस्था के अध्यक्ष भी बने[8].
1927 में, जब शास्त्री जी का शुभ विवाह मिर्ज़ापुर की ललिता देवी से संपन्न हुआ तो भारी भरकम दहेज़ का चलन था किन्तु शास्त्रीजी ने केवल एक चरखा व एक खादी  का कुछ गज का टुकड़ा  ही दहेज़ स्वीकार किया ! 1930 में,महात्मा  गाँधी के नमक सत्याग्रह के समय वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े, तथा ढाई वर्ष का कारावास हुआ[9]. एकबार, जब वे बंदीगृह में थे, उनकी एक बेटी गंभीर रूप से बीमार हुई तो उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में भाग न लेने की शर्त पर 15 दिवस की सशर्त छुट्टी दी गयी ! परन्तु उनके घर पहुँचने से पूर्व ही बेटी का निधन हो चूका था ! बेटी के अंतिम संस्कार पूरे कर, वे अवधि[10] पूरी होने से पूर्व ही स्वयं कारावास लौट आये !  एक वर्ष पश्चात् उन्होंने एक सप्ताह के लिए घर जाने की अनुमति मांगी जब उनके पुत्र को influenza हो गया था ! अनुमति भी मिल गयी किन्तु पुत्र एक सप्ताह मैं निरोगी नहीं हो पाया तो अपने परिवार के अनुग्रहों (pleadings, के बाद भी अपने वचन के अनुसार वे कारावास लौट आये[10].
8 अगस्त 1942, महात्मा गाँधी ने मुंबई के गोवलिया टेंक में अंग्रेजों भारत छोडो की मांग पर भाषण दिया ! शास्त्री जी जेल से छूट कर सीधे पहुंचे जवाहरलाल नेहरु के hometown अल्लहाबाद और आनंद  भवन से एक सप्ताह स्वतंत्रता सैनानियों को निर्देश देते रहे ! कुछ दिन बाद वे फिर बंदी बनाकर कारवास भेज दिए गए और वहां रहे 1946 तक[12], शास्त्री जी कुलमिला कर 9 वर्ष जेल में रहे [13]. जहाँ वे पुस्तकें पड़ते रहे और इसप्रकार पाश्चात्य western philosophers, revolutionaries and social reformer की कार्य प्रणाली से अवगत होते रहे ! तथा मारी कुरी की autobiography का हिंदी अनुवाद भी किया[9].
आज़ादी के बाद 
भारत आजाद होने पर, शास्त्री जी अपने गृह प्रदेश उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव नियुक्त किये गए! गोविन्द  बल्लभ  पन्त के मंत्री मंडल के पुलिस व यातायात मंत्री बनकर पहली बार महिला कन्डक्टर की नियुक्ति की ! पुलिस को भीड़ नियंत्रण हेतु उन पर लाठी नहीं पानी की बौछार का उपयोग के आदेश दिए[14].
1951 में राज्य सभा सदस्य बने तथा कांग्रेस महासचिव के नाते चुनावी बागडोर संभाली, तो 1952, 1957 व 1962 में प्रत्याशी चयन, प्रचार द्वारा जवाहरलाल  नेहरु को संसदीय चुनावों में भारी बहुमत प्राप्त हुआ! केंद्र में 1951 से 1956 तक रेलवे व यातायात मंत्री रहे, 1956 में महबूबनगर की रेल दुर्घटना में 112 लोगों की मृत्यु के पश्चात् भेजे शास्त्रीजी के त्यागपत्र को नेहरुजी ने स्वीकार नहीं किया[15]! किन्तु 3 माह पश्चात् तमिलनाडू के अरियालुर दुर्घटना (मृतक 114) का नैतिक व संवैधानिक दायित्व मान कर दिए त्यागपत्र को स्वीकारते नेहरूजी ने कहा शास्त्री जी इस दुर्घटना के लिए दोषी नहीं[3] हैं किन्तु इससे संवैधानिक आदर्श स्थापित करने का आग्रह है ! शास्त्री जी के अभूत पूर्व निर्णय की की देश की जनता ने भूरी भूरी प्रशंसा की ! 
1957 में, शास्त्री जी संसदीय चुनाव के पश्चात् फिर मंत्रिमंडल में लिए गए, पहले यातायात व संचार मंत्री, बाद में वाणिज्य व उद्योग मंत्री[7] तथा 1961 में गृह मंत्री बने[3] तब क.संथानम[16] 
की अध्यक्षता में भ्रष्टाचार निवारण कमिटी गठित करने में भी विशेष भूमिका रही ! 
प्रधान मंत्री 
लाल बहादुर शास्त्री  जी  का नेतृत्व 
27 मई 1964 जवाहरलाल नेहरु की मृत्यु से उत्पन्न रिक्तता को 9 जून को भरा गया जब कांग्रेस अध्यक्षक. कामराज ने  प्रधान मंत्री पद के लिए एक मृदु भाषी, mild-mannered नेहरूवादी शास्त्री जी को उपयुक्त पाया तथा इसप्रकार पारंपरिक दक्षिणपंथी मोरारजी देसाई का विकल्प स्वीकार हुआ ! प्रधान मंत्री के रूप में राष्ट्र के नाम प्रथम सन्देश में शास्त्री जी ने को कहा[17]
हर राष्ट्र के जीवन में एक समय ऐसा आता है, जब वह इतिहास के चौराहे पर खड़ा होता है और उसे अपनी दिशा निर्धारित करनी होती है !.किन्तु हमें इसमें कोई कठिनाई या संकोच की आवश्यकता नहीं है! कोई इधर उधर देखना नहीं हमारा मार्ग सीधा व स्पष्ट है! देश में सामाजिक लोकतंत्र के निर्माण से सबको स्वतंत्रता व वैभवशाली बनाते हुए विश्व शांति तथा सभी देशों के साथ मित्रता !
शास्त्री जी विभिन्न विचारों में सामंजस्य निपुणता के बाद भी अल्प अवधि के कारण देश के अर्थ संकट व खाद्य संकट का प्रभावी हल न कर पा रहे थे ! परन्तु जनता में उनकी लोकप्रियता व सम्मान अत्यधिक था जिससे उन्होंने देश में हरित क्रांति लाकर खाली गोदामों को भरे भंडार में बदल दिया ! किन्तु यह देखने के लिए वो जीवित न रहे, पाकिस्तान से 22 दिवसीय युद्ध में, लाल बहादुर शास्त्री जी ने नारा दिया "जय जवान जय किसान" देश के किसान को सैनिक समान बना कर देश की सुरक्षा के साथ अधिक अन्न उत्पादन पर बल दिया! हरित क्रांति व सफेद (दुग्ध) क्रांति[16] के सूत्र धार शास्त्री जी अक्तू.1964 में कैरा जिले में गए उससे प्रभावित होकर उन्होंने आनंद का देरी अनुभव से सरे देश को सीख दी तथा उनके प्रधानमंत्रित्व काल 1965 में नेशनल देरी डेवेलोपमेंट बोर्ड गठन हुआ ! 
समाजवादी होते हुए भी उन्होंने अपनी अर्थव्यवस्था को किसी का पिछलग्गू नहीं बनाया[16]. अपने कार्य काल 1965[7] में उन्होंने भ्रमण किया रूसयुगोस्लावियाइंग्लैंडकनाडा व बर्मा
पाकिस्तान से युद्ध 
भारत पाकिस्तानी युद्ध 1965
पाकिस्तान ने आधे कच्छ, पर अपना अधिकार जताते अपनी सेनाएं अगस्त 1965 में भेज दी, which skirmished भारतीय टेंक की कच्छ की मुठभेढ़ पर लोक सभा में, शास्त्री जी का वक्तव्य[17]:
“ अपने सीमित संसाधनों के उपयोग में हमने सदा आर्थिक विकास योजना तथा परियोजनाओं को प्रमुखता दी है, अत: किसी भी चीज को सही परिपेक्ष्य में देखने वाला कोई भी समझ सकता है कि भारत की रूचि सीमा पर अशांति अथवा संघर्ष का वातावरण बनाने में नहीं हो सकती !... इन परिस्थितियों में सरकार का दायित्व बिलकुल स्पष्ट है और इसका निर्वहन पूर्णत: प्रभावी ढंग से किया जायेगा ...यदि आवश्यकता पड़ी तो हम गरीबी में रह लेंगे किन्तु देश कि स्वतंत्रता पर आँच नहीं आने देंगे!  ”
  ( It would, therefore, be obvious for anyone who is prepared to look at things objectively that India can have no possible interest in provoking border incidents or in building up an atmosphere of strife... In these circumstances, the duty of Government is quite clear and this duty will be discharged fully and effectively... We would prefer to live in poverty for as long as necessary but we shall not allow our freedom to be subverted.)
पाकिस्तान कि आक्रामकता का केंद्र है कश्मीर. जब सशस्त्र घुसपैठिये पाकिस्तान से जम्मू एवं कश्मीर राज्य में घुसने आरंभ हुए, शास्त्री जी ने पाकिस्तान को यह स्पष्ट कर दिया कि ईंट का जवाब पत्थर से दिया जायेगा[18] अभी सित.1965 में ही पाक सैनिकों सहित सशस्त्र घुसपैठियों ने सीमा पार करते समय सब अपने अनुकूल समझा होगा, किन्तु ऐसा था नहीं और भारत ने भी युद्ध विराम रेखा (अब नियंत्रण रेखा) के पार अपनी सेना भेज दी है तथा युद्ध होने पर पाकिस्तान को लाहौर के पास अंतर राष्ट्रीय सीमा पर करने कि चेतावनी भी दे दी है! टेंक महा संग्राम हुआ पंजाब में , and while पाकिस्तानी सेनाओं को कहीं लाभ हुआ, भारतीय सेना ने भी कश्मीर का हाजी पीर का महत्त्व पूर्ण स्थान अधिकार में ले लिया है, तथा पाकिस्तानी शहर लाहौर पर सीधे प्रहार करते रहे! 
17 सित.1965, भारत पाक युद्ध के चलते भारत को एक पत्र  चीन से मिला. पत्र में, चीन ने भारतीय सेना पर उनकी सीमा में सैन्य उपकरण लगाने का आरोप लगाते, युद्ध की धमकी दी अथवा उसे हटाने को कहा जिस पर शास्त्री जी ने घोषणा की "चीन का आरोप मिथ्या है! यदि वह हम पर आक्रमण करेगा तो हम अपनी अपनी संप्रभुता की रक्षा करने में सक्षम हैं"[19]. चीन ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया किन्तु भारत पाक युद्ध में दोनों ने बहुत कुछ खोया है! .
भारत पाक युद्ध समाप्त 23 सित.  1965 को संयुक्त राष्ट्र-की युद्ध विराम घोषणा से हुआ. इस अवसर पर प्र.मं.शास्त्री जी ने कहा[17]:
“ दो देशों की सेनाओं के बीच संघर्ष तो समाप्त हो गया है संयुक्त राष्ट्र- तथा सभी शांति चाहने वालों के लिए अधिक महत्वपूर्ण है is to bring to an end the deeper conflict... यह कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? हमारे विचार से, इसका एक ही हल है शांतिपूर्ण सहा अस्तित्व! भारत इसी सिद्धांत पर खड़ा है; पूरे विश्व का नेतृत्व करता रहा है! उनकी आर्थिक व राजनैतिक विविधता तथा मतभेद कितने भी गंभीर हों, देशों में शांतिपूर्ण सहस्तित्व संभव है !  ” 
ताश कन्द का काण्ड 
युद्ध विराम के बाद, शास्त्री जी तथा  पाकिस्तानी राष्ट्रपति मुहम्मद अयूब खान वार्ता के लिए ताश कन्द (अखंडित रूस, वर्तमान उज्बेकिस्तान) अलेक्सेई कोस्य्गिन के बुलावे पर 10 जन.1966 को गए, ताश कन्द समझौते पर हस्ताक्षर किये! शास्त्री जी को संदेह जनक परिस्थितियों में मृतक बताते, अगले दिन/रात्रि के 1:32 बजे [7]  हृदयाघट का घोषित किया गया ! यह किसी सरकार के प्रमुख की सरकारी यात्रा पर विदेश में मृत्यु की अनहोनी घटना है[20]
शास्त्री जी की मृत्यु का रहस्य ?
शास्त्री जी की रहस्यमय मृत्यु पर उनकी विधवा पत्नी ललिता शास्त्री  कहती रही कि उनके पति को विष दिया गया है. कुछ उनके शव का नीला रंग, इसका प्रमाण बताते हैं.शास्त्री जी को विष देने के आरोपी रुसके रसोइये को बंदी भी बनाया गया किन्तु वो प्रमाण के अभाव में बच गया[21]
2009 में, जब अनुज धर, लेखक CIA's Eye on South Asia, RTI में  (Right to Information Act) प्रधान मंत्री कार्यालय से कहा, कि शास्त्री जी की मृत्यु का कारण सार्वजानिक किया जाये, विदेशों से सम्बन्ध बिगड़ने की बात कह कर टाल दिया गया देश में असंतोष फैलने व संसदीय विशेषाधिकार का उल्लंघन भी बताया गया[21]
PMO ने इतना तो स्वीकार किया कि शास्त्री जी कि मृत्यु से सम्बंधित एक पत्र कार्यालय के पास है! सरकार ने यह भी स्वीकार किया कि शव की रूस USSR में post-mortem examination जाँच नहीं की गई, किन्तु शास्त्री जी के वैयक्तिगत चिकित्सक  डा. र.न.चुघ ने जाँच कर रपट दी थी! किस प्रकार हर सच को छुपाने का मूल्य लगता है और सच का झूठ / झूठ का सच यहाँ सामान्य प्रक्रिया है कुछ भ हो सकता है[21]
स्मृतिचिन्ह 
आजीवन सदाशयता व विनम्रता के प्रतीक माने गए, शास्त्री जी एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया, व दिल्ली के "विजय घाट" उनका स्मृति चिन्ह बनाया गया ! अनेकों शिक्षण सस्थान, शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक संसथान National Academy of Administration (Mussorie) तथा शास्त्री इंडो -कनाडियन इंस्टिट्यूट अदि उनको समर्पित हैं[22]
"पूरा परिवेश पश्चिमकी भेंट चढ़ गया है.उसे संस्कारित,योग,आयुर्वेद का अनुसरण कर हम अपने जीवनको उचित शैली में ढाल सकते हैं! आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक

Friday, December 31, 2010

अंग्रेजी का नव वर्ष, भले ही मनाएं

अंग्रेजी का नव वर्ष, भले ही मनाएं

 "अंग्रेजी का नव वर्ष, भले ही मनाएं; उमंग उत्साह, चाहे जितना दिखाएँ; चैत्र के नव रात्रे, जब जब भी आयें; घर घर सजाएँ, उमंग के दीपक जलाएं; आनंद से, ब्रह्माण्ड तक को महकाएं; विश्व में, भारत का गौरव बढाएं " अंग्रेजी का नव वर्ष 2011, व वर्ष के 365 दिन ही मंगलमय हों, भारत भ्रष्टाचार व आतंकवाद से मुक्त हो, हम अपने आदर्श व संस्कृति को पुनर्प्रतिष्ठित कर सकें ! इन्ही शुभकामनाओं के साथ, भवदीय.. तिलक संपादक युगदर्पण राष्ट्रीय साप्ताहिक हिंदी समाचार-पत्र. 09911111611. 

Bangla... 

অংগ্রেজী কা নব বর্ষ, ভলে হী মনাএং 

 "অংগ্রেজী কা নব বর্ষ, ভলে হী মনাএং; উমংগ উত্সাহ, চাহে জিতনা দিখাএঁ; চৈত্র কে নব রাত্রে, জব জব ভী আযেং; ঘর ঘর সজাএঁ, উমংগ কে দীপক জলাএং; আনংদ সে, ব্রহ্মাণ্ড তক কো মহকাএং; বিশ্ব মেং, ভারত কা গৌরব বঢাএং " অংগ্রেজী কা নব বর্ষ 2011, ব বর্ষ কে 365 দিন হী মংগলময হোং, ভারত ভ্রষ্টাচার ব আতংকবাদ সে মুক্ত হো, হম অপনে আদর্শ ব সংস্কৃতি কো পুনর্প্রতিষ্ঠিত কর সকেং ! ইন্হী শুভকামনাওং কে সাথ, ভবদীয.. তিলক সংপাদক যুগদর্পণ রাষ্ট্রীয সাপ্তাহিক হিংদী সমাচার-পত্র. 09911111611. 
Tamil... அஂக்ரேஜீ கா நவ வர்ஷ, பலே ஹீ மநாஏஂ
 "அஂக்ரேஜீ கா நவ வர்ஷ, பலே ஹீ மநாஏஂ; உமஂக உத்ஸாஹ, சாஹே ஜிதநா திகாஏஂ; சைத்ர கே நவ ராத்ரே, ஜப ஜப பீ ஆயேஂ; கர கர ஸஜாஏஂ, உமஂக கே தீபக ஜலாஏஂ; ஆநஂத ஸே, ப்ரஹ்மாண்ட தக கோ மஹகாஏஂ; விஸ்வ மேஂ, பாரத கா கௌரவ படாஏஂ " அஂக்ரேஜீ கா நவ வர்ஷ 2011, வ வர்ஷ கே 365 திந ஹீ மஂகலமய ஹோஂ, பாரத ப்ரஷ்டாசார வ ஆதஂகவாத ஸே முக்த ஹோ, ஹம அபநே ஆதர்ஸ வ ஸஂஸ்கர்தி கோ புநர்ப்ரதிஷ்டித கர ஸகேஂ ! இந்ஹீ ஸுபகாமநாஓஂ கே ஸாத, பவதீய.. திலக ஸஂபாதக யுகதர்பண ராஷ்ட்ரீய ஸாப்தாஹிக ஹிஂதீ ஸமாசார-பத்ர. 09911111611.
"One may celebrate even English New Year, with exaltation and excitement; Chaitra Nav Ratre whenever it comes; decorate house, enlighten with lamps of exaltation; enjoy, even enrich the universe with Happiness; Increase the India's pride in the world, English New Year 2011 and all the 365 days of the year are auspicious, May India be free of corruption and terrorism, we can ReEstablish Ideals, values and culture ! with these good wishes, Sincerely .. Tilak editor YugDarpan Hindi national weekly newspaper. 09,911,111,611.
"Angrezi ka nav varsh, bhale hi manayen; umang utsah, chahe jitna dikhayen; chaitr ke nav ratre, jab jab bhi ayen; ghar ghar sajayen, umang ke deepak jalayen; Anand se, brahmand tak ko mahkayen; Vishva mein, Bharat ka gaurav badayen." Angrezi ka nav varsh 2011, v varsh ke 365 din hi mangalmay hon, Bharat bhrashtachar v atankvad se mukt ho, ham apne adarsh v sanskrutiko punrpratishthit kar saken ! inhi shubhakamanaon ke sath, bhavdiya.. Tilak Sampadak Yug Darpan Rashtriya Saptahik Hindi Samachar-Patra. 09911111611.

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Friday, December 24, 2010

पं. मदनमोहन मालवीय का सांस्कृतिक अवदान

पं. मदनमोहन मालवीय का सांस्कृतिक अवदान

डॉ. विनय मिश्र
श्रीमद्भगवदगीता में उल्लेख है - यदि
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानऽधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यऽहम्
अर्थात् जब भी धर्म का पराभव एवं अधर्म का विस्तार होता है तब तब कोई महाशक्ति धर्म की स्थापना एवं मानवीय मूल्यों को पुनर्जीवित करने के लिए पृथ्वी पर अवतरित होती है। पराधीन राष्ट्र को स्वतंत्र कराने एवं नव निर्माण के संकल्प का बीजवपन भारतीय सांस्कृतिक जीवन मूल्यों की उर्वरा भूमि पर करने वाले युगपुरुष महामना पं. मदनमोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर 1861 ई. में प्रयाग में हुआ था। यह वह समय था जब अधर्म, अशांति तथा गुलामी की बेडयों में देश जकडा हुआ था। भौतिकवादी दुर्वासनाजनित कल्पनाओं की बयार हर ओर बह रही थी, अध्यात्म से अनुप्राणित सरगम की जगह वातावरण में असत्य एवं अत्याचार से संचालित राजनीति एवं रूढयों की प्रतिष्ठा थी एवं अनैतिकता का आचरण मनुष्य मात्र का सहज कार्य व्यापार था, कुछ ऐसे ही देश काल में भारतीय संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए, नैतिक मूल्यों के उन्नयन के लिये, असत्य प्रेरित भौतिकवादिता के उन्मूलन के लिये, वेदों और शास्त्रों में निहित धार्मिक सिद्धान्तों के प्रचार प्रसार के लिए, वसुधैव कुटुम्बकम् की महत् भावना से अनुप्राणित परहित के लिए त्याग एवं प्रेम को स्वीकृति देने वाले गंगाजल के समान स्वच्छ व निर्मल व्यक्तित्व के धनी पं. मदनमोहन मालवीय का आविर्भाव हुआ। मालवीय जी प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रबल समर्थक थे, अतः भारतीय संस्कृति की सेवा करने का मूलमंत्र व प्रेरणा स्रोत एक श्लोक से ग्रहण करते हुए उन्होंने अपना सारा जीवन सनातन जीवन मूल्यों के उन्नयन में लगा दिया - 
न त्वहं कामये राज्यं, न स्वर्गं नाऽपुनभर्वम्।
कामये दुःखतप्तानां, प्राणिनामार्तिंनाशनम।।
अर्थात् न मुझे राज्यप्राप्ति की इच्छा है, न स्वर्ग की और न ही फिर से मनुष्य देह धारण करने की। यदि कोई कामना है तो बस यही कि मैं किस प्रकार दुःखों में तपते प्राणियों की पीडा का हरण कर सकूँ। 
एक सत्यनिष्ठ उपासक की तरह मालवीय जी ने देश के नवयुवकों का आह्वान करते हुए कहा - ’’सब प्राणियों के उपकार के लिए, शारीरिक शिक्षा और धर्म के महत्त्व को समझो। गाँव गाँव में पाठशालाएँ, खेलकूद के मैदान और अखाडे खोलो।‘‘ यह कथन आज के सन्दर्भ में भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि पहले था क्योंकि वर्तमान जीवन के दमघोटूँ एवं संत्रास भरे वातावरण से मुक्त होकर, सौन्दर्य एवं कल्पना के लोक में मनुष्य तभी विचरण कर सकता है। जब वह प्रकृति द्वारा प्राप्त संपूर्ण क्षमताओं एवं शक्तियों को पहचानकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति में निरंतर क्रियाशील बना रहे।
हिन्दू धर्म एवं भारतीय संस्कृति की यही विशेषता रही है कि जीवन से संबंधित प्रश्नों का उत्तर ढूँढने के लिए अनगिनत महापुरुषों एवं मनीषियों ने अपना पूरा जीवन उत्सर्ग कर दिया। पं. मदनमोहन मालवीय भी ऐसे ही भारत रत्नों में से एक थे। वे अपने समय के उन प्रधान नेताओं में से थे जिन्होंने ’हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान‘ को सर्वोच्च स्थान पर स्थापित कराया। हिन्दी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग जैसी साहित्यिक संस्थाओं की स्थापना एवं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसे शिक्षा केन्द्रों के निर्माण द्वारा सार्वजनिक हिन्दी आंदोलन का नेतृत्व कर मालवीय जी ने हिन्दी की जो सेवा की है वह असाधारण है। उनके सद्प्रयत्नों से ही हिन्दी को यश, विस्तार और उच्च पद मिला। वे उच्च कोटि के विद्वान्, वक्ता और लेखक थे। यद्यपि लोकमान्य तिलक, राजेन्द्र बाबू और जवाहरलाल नेहरू के मौलिक या अनूदित साहित्य की तरह मालवीय जी ने नहीं लिखा अतः उनके कृतित्व का आकलन करते हुए यह मानना होगा कि हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में उनका योगदान क्रियात्मक अधिक परन्तु रचनात्मक साहित्यकार के रूप में कम है। उनके हिन्दी प्रेम को प्रमाणित करते हुए उनके भाषण का एक अंश प्रस्तुत हैं - ’’भारतीय विद्यार्थियों के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का कोई अंत नहीं है। सबसे बडी कठिनाई यह है कि शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा न होकर एक दुरूह विदेशी भाषा है। सभ्य संसार के किसी भी अन्य भाग में जन समुदाय की शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।‘‘ मालवीय जी विशुद्ध हिन्दी के पक्ष में थे और हिन्दी और हिन्दुस्तानी को एक नहीं मानते थे। सन् 1916 में हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना ही उनकी शिक्षा और साहित्य सेवा का वह अमिट शिलालेख है जो इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में सदा चमकता रहेगा। इसके अतिरिक्त ’सनातन धर्मसभा‘ का नेता होने के कारण देश के विभिन्न भागों में उन्होंने सनातन धर्म कॉलेजों की स्थापना की प्रेरणा प्रदान की।
सार्वजनिक जीवन में मालवीय जी का पदार्पण विशेषकर दो घटनाओं के कारण हुआ पहला यह कि अंग्रेजी और उर्दू के बढते प्रभाव के कारण हिन्दी भाषा को क्षति न पहुँचे, इसके लिए जनमत संग्रह करना तथा दूसरा भारतीय सभ्यता और संस्कृति के मूल तत्त्वों को प्रोत्साहन देना।
हिन्दी की सबसे बडी सेवा मालवीय जी ने इस रूप में की कि उन्होंने उत्तरप्रदेश की अदालतों और दफ्तरों में हिन्दी को व्यवहार योग्य भाषा के रूप में स्वीकृत कराया। इससे पहले केवल उर्दू ही सरकारी दफ्तरों और अदालतों की भाषा थी। सन् 1893 में मालवीय जी ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया और वे इस सभा के प्रवर्तकों में से थे।
यद्यपि धार्मिक एवं सामाजिक विषयों पर उनके आर्यसमाज से गहरे मतभेद थे क्योंकि वे समस्त कर्मकाण्ड, रीतिरिवाज एवं मूर्तिपूजा आदि को हिन्दू धर्म का मौलिक अंग मानते थे फिर भी हिन्दी के प्रश्न पर दोनों का मतैक्य था। मालवीय जी एक सफल पत्रकार भी थे और हिन्दी पत्रकारिता से ही उन्होंने जीवन के कर्म क्षेत्र में पदार्पण किया। ’लीडर‘ और हिन्दुस्तान टाइम्स‘ की स्थापना का श्रेय भी मालवीय जी को है। कुछ दिनों को लिए उन्होंने ’मर्यादा‘ नाम से एक समाचार पत्र भी निकाला। वे पत्रों के द्वारा जनता में प्रचार करने में बहुत विश्वास रखते थे और स्वयं कई वर्षों तक अनेक पत्रों के सम्पादक भी रहे। कई साहित्यिक एवं धार्मिक संस्थाओं से भी उनका सम्फ रहा। सनातन धर्म सभा के सिद्धान्तों को प्रचारित करने के लिए मालवीय जी के प्रयत्नों से ही काशी से ’सनातन धर्म‘ नामक साप्ताहिक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। इस तरह से हिन्दी भाषा के स्तर को ऊँचा करने का उनका सद्प्रयास रंग लाया और शिक्षा सुधार के क्षेत्र में मालवीय जी के प्रयत्न अविस्मरणीय हो गये।
वे पुस्तकीय शिक्षा की बजाय प्रौद्योगिक शिक्षा के समर्थक थे। वे चाहते थे कि वैज्ञानिक ढंग की शिक्षा अपने देश में भी प्रारम्भ की जाये और प्रयोगशाला तथा वर्कशाप में विद्यार्थियों को अपने हाथों से प्रयोग करने का अभ्यास कराया जाये, उनमें शिक्षा से प्रेरणा की शक्ति उत्पन्न की जाये, उनके ज्ञान को यथातथ्य तथा जीवनोपयोगी बनाया जाये। उनकी धारणा थी कि भारत अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त करने में तब तक सर्वथा असमर्थ रहेगा जब तक वह वर्तमान वैज्ञानिक अन्वेषण का अध्ययन नियमित और अनिवार्य नहीं बनाता। वे प्राचीन आयुर्वेद के साथ अर्वाचीन शल्य शिक्षा का मेल, आयुर्वेदिक औषधियों का वैज्ञानिक परीक्षण तथा उन पर अनुसंधान, विभिन्न विषयों पर प्राच्य और आधुनिक ज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन, प्राचीन भारतीय संस्कृति, दर्शन साहित्य तथा इतिहास के गहन अध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ आधुनिक मनोविज्ञान, नीतिविज्ञान, दर्शनशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र का अध्ययन-अध्यापन, वेद-वेदांत, संस्कृत साहित्य और वाङ्मय की शिक्षा के अतिरिक्त आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, धातु विज्ञान, खनन विज्ञान, विद्युत एवं यांत्रिक इंजीनियरिंग, कृषि विज्ञान आदि विषयों का अध्ययन-अध्यापन भी चाहते थे। इस प्रकार मुख्य रूप से सामाजिक स्थिरता एवं समरसता हेतु मालवीय जी प्राचीन शिक्षा व्यवस्था तथा परिवर्तन और आधुनिकता हेतु आधुनिक वैज्ञानिक प्राकृतिक विज्ञान की शिक्षा व्यवस्था के पक्षधर थे क्योंकि उनके विचार में ’व्यक्ति‘ में मानवोचित विकास तथा प्रगति एवं कार्यशीलता के लिए उपर्युक्त शिक्षा आवश्यक है। उनका विचार था कि धर्म, दर्शन तथा कला की शिक्षा मनुष्य के सिर की भाँति है और विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी की शिक्षा उसके धड के समान
है, अतः उक्त दोनों प्रकार की शिक्षा एक दूसरे की पूरक है। मालवीय जी शिक्षा को चरित्र विकास का साधन मानते थे और चाहते थे कि शिक्षा द्वारा ’व्यक्ति‘ का सर्वांगीण विकास हो। वे सह शिक्षा के समर्थक थे। उनके अनुसार ’’स्त्रियों में पुरुषोचित और पुरुषों में स्त्रियोचित गुण समवयस्क सह शिक्षा द्वारा ही आ सकता है।‘‘ उस जमाने में इतने प्रगतिशील विचार रखना मालवीय जी की अत्याधुनिक व दूरदर्शितापूर्ण वैचारिकता का प्रमाण है।
मालवीय जी शिक्षा के साथ-साथ चरित्र निर्माण पर भी जोर देते थे। कहा भी गया है चरित्र निर्माणं ज्ञान विज्ञानात् श्रेष्ठतरम्। चरित्र के महत्त्व के प्रसंग में मालवीय जी ने एक जगह लिखा है - ’’धर्म, चरित्र निर्माण तथा सांसारिक सुख का सीधा मार्ग है। इससे मनुष्यों में उच्चकोटि की निःस्वार्थ सेवा की भावना आती है जिससे समाज तथा राष्ट्र का कल्याण होता है। उनके अनुसार शिक्षा प्रणाली का प्रधान ध्येय नवयुवकों को योग्य नागरिक बनाना तथा जनता की बुद्धि का विकास करना है।‘‘
मालवीय जी स्त्री शिक्षा के भी प्रबल हिमायती थे। इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा था कि ’’पुरुषों की शिक्षा से स्त्रियों की शिक्षा का अधिक महत्त्व है क्योंकि वे ही भारत की भावी सन्तति की माता हैं, वे हमारे भावी राजनीतिज्ञों, विद्वानों, तत्त्वज्ञानियों, व्यापार तथा कला-कौशल के नेताओं आदि की प्रथम शिक्षिका हैं, उनकी शिक्षा का प्रभाव भारत के भावी नागरिकों की शिक्षा पर विशेष रूप से पडेगा।‘‘ महाभारत में कहा गया है - ’’माता के समान कोई शिक्षक नहीं है।‘‘ इस प्रकार स्त्री शिक्षा के संदर्भ में मालवीय जी ने एक परिवर्तनवादी आधुनिक विचारदृष्टि तत्कालीन समाज के सामने रखी। मालवीय जी की शैक्षणिक विचारधारा प्रगतिशील और आधुनिक है जो एक दूरदर्शी शिक्षाशास्त्री के रूप में भी उनकी उल्लेखनीय भूमिका को राष्ट्रीय आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में स्थापित करती है।
पं. मदनमोहन मालवीय भारतीय संस्कृति के अद्वितीय उपासक एवं प्रतीक पुरुष थे। ब्रह्मचर्य पालन एवं गायत्री को स्वदेश भक्ति का अभिन्न अंग मानते हुए उन्होंने युवकों को भीष्म के समान व्रतनिष्ठ, कृष्ण के समान नीतिज्ञ एवं परशुराम के समान अन्याय एवं पराधीनता की बेडयों को काटने के लिए अपेक्षित आक्रोश का आह्वान किया। वे मानते थे कि बगैर धार्मिक उत्थान के राष्ट्र का उत्थान असंभव है। महामना द्वारा प्रतिपादित धर्म किसी संकीर्णवादी सांप्रदायिक दृष्टि का नहीं अपितु मानवमात्र को आत्मवत् देखने के विचार का पक्षधर था। अपने एक लेख में इसी दृष्टि के प्रतिपादन के लिए उन्होंने शास्त्र निर्दिष्ट एक श्लोक का उल्लेख किया है।
मातृवत्परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत्
आत्मवत्सर्वभूतेष, यः पश्यति स पण्डितः 
निष्कर्षतः महामना मालवीय जी के सांस्कृतिक अवदान का मूल्यांकन करते हुए हम कह सकते हैं कि ’स्व‘ धर्म के प्रति अच्युत रहकर अपने धवल सबल चरित्र द्वारा अपने उदात्त मानस व प्रगतिशील प्रज्ञा दृष्टि का प्रमाण देते हुए मालवीय जी ने प्राचीन भारत की सभ्यता और संस्कृति में जो कुछ महान् व गौरवपूर्ण था उन जीवनदायी मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना की तथा जन मन में सांस्कृतिक गरिमा जगाने हेतु विभिन्न कला, धर्म एवं शिक्षण की सरणियों एवं विधाओं से नवजागरण का शंखनाद किया।
यह राष्ट्र जो कभी विश्वगुरु था,आजभी इसमें वह गुण,योग्यता व क्षमता विद्यमान है!
विश्वगुरु रहा वो भारत, इंडिया के पीछे कहीं खो गया ! इंडिया से भारत बनकर ही विश्व गुरु बन सकता है
पूरा परिवेश पश्चिमकी भेंट चढ़ गया है.उसे संस्कारित,योग,आयुर्वेद का अनुसरण कर हम अपने जीवन को उचित शैली में ढाल सकते हैं! आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक