(मानव व्यवहार इतना जटिल है कि उसके विषय में कोई भी कथन यदि 60 प्रतिशत भी सही हो तो उसे सही माना जाना चाहिये।)
मुझे लगता है कि भोगवाद का विषय आज तर्क के तथा समझने समझाने के परे हो गया है। दार्शनिक, साधु या कुछ विवेकशील व्यक्ति ही आज के भोगवाद पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।अन्य लोग तो भोगवाद में मस्त हैं, या उसकी घुड़दौड़ में ही मस्त हैं। आखिर वे प्रश्नचिन्ह क्यों लगाएं? पिछले दस पंद्रह वर्षों में जो आर्थिक प्रगति भारत ने, आइ एम सॉरी, इंडिया ने की है वह इसी भोगवाद की कृपा से ही हुई है ! सैक्सी कारें और स्कूटर, रंगीन टीवी तथा माध्यम सरीखे मनोरंजन गैजैट्स, चर – अचर दूरभाष आदि दूर संचार सुविधाएं, रैफ्रिजरेटर सरीखी सफेद वस्तुएं, कम्प्यूटर और उसका स्पाउज़ इंटरनैट, सैक्सी कपड़े और जूते, शानदार पॉंचसितारा राजसीमहल तथा फास्टफूड जॉइंट्स आदि आदि आज यही तो प्रगति नापने के मापदण्ड हो गए हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ भी इन्हीं का अनुमोदन करता है। जब भोग निश्चित ही जीवन के लिये नितान्त आवश्यक है तब कोई भी बुद्धिमान मनुष्य इस भोगवाद की प्रशंसा ही करेगा, विरोध क्यों ?
यह तो सच है कि भोग निश्चित ही जीवन के लिये नितान्त आवश्यक है। जब जीवन के लिये केवल आवश्यक भोग ही किया जाए तब वह वांछनीय और उचित है; इसमें आवश्यक शब्द का सही अर्थ जीवन दृष्टि पर निर्भर करेगा। भोग किस तरह किया जाता है, कितना किया जाता है और क्यों किया जाता है, यह प्रश्न विचारणीय हैं। वास्तव में इन प्रश्नों के उत्तर भी मनुष्य की जीवनदृष्टि पर निर्भर करते हैं। भोगवाद अपने आप में एक जीवन दृष्टि है, वरन पूर्ण जीवन दृष्टि हो सकती है ! एक प्रसिद्ध अमरीकी विचारक कैन स्कूलैन्ड अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ए गाइडिंग प्रिंसिपल आफ लाइफ’ में पथ प्रदर्शन करते हैं : “ . . .आपके जीवनभर की खेती की फसल आपकी जमीन जायदाद है। यह आपके कठोर श्रम का फल है, आपके बहुमूल्य समय का प्रतिदान है, आपके समय, ऊर्जा तथा बद्धि का उत्पाद है।” इस विचारधारा में मनुष्य पूरी तरह पादार्थिक जीवन दृष्टि से संचालित है। विकीपीडिया में दी गई कन्ज़्यूमरिज़म अर्थात भोगवाद की परिभाषा के अनुसार इसमें मनुष्य का सुख, प्रतिष्ठा, आत्मसम्मान, प्रगति, सफलता, और प्रतिष्ठा उसके भोगवाद के संसाधनों से नापी जाती है; तथा भोगवाद पर आर्थिक तथा सामाजिक प्रगति निर्भर करती है।और यह तो हम सभी जानते हैं कि अधिक से अधिक सुख, कहना चाहिये अनंत सुख तो सभी चाहते हैं अतः भोगवाद के साधन भी जिसके पास अधिकतम हों वही अधिकतम सुखी होगा। भोगवादी गाएगा, ‘मेरा दिल मॉंगे ‘मोर’’। सारा विश्व आज मॉंग रहा है ‘मोर’, तब इंडिया क्यों नहीं ! मजे की बात यह है कि भोगवाद के समर्थन में कोई बौद्धिक आन्दोलन नहीं चलाया गया; मानो कि यह स्वयंभू है; जैसे कि स्वतः ही इसके बीज जो औद्योगिक उन्नति में अंकुरित और प्रस्फुटित हुए थे, बहुल उत्पादन प्रौद्योगिकी के आते ही पल्लवित और पुष्पित हो गए; जैसे कि भोगवाद मनुष्य के सहज स्वभाव में ही है।
ऐसा नहीं है कि पश्चिम में भोगवाद का विरोध न हुआ हो, स्वयं कार्लमार्क्स ने इसका विरोध किया था, किन्तु उन्होनें उसे पूँजीवादी भोगवाद कहकर विरोध किया था, वे साम्यवादी भोगवाद चाहते थे, अर्थात मोटे तौर पर वे शासन द्वारा नियंत्रित भोगवाद चाहते थ। यद्यपि उन्होने कहा था कि पूंजीवाद में वस्तु की पूजा होने लगती है, जो सत्य है, किन्तु पूंजीवादियों ने उनके इस कथन को मात्र साम्यवादी कहकर खारिज कर दिया। कार्लमार्क्स इससे अधिक कुछ कर भी नहीं सकते थे क्योंकि साम्यवाद स्वयं पदार्थवादी है, और भोगवादी है। पूँजीवादी भोगवाद में उद्योगपति इसका नियंत्रण करते हैं, और मजा यह कि भोगवादी सोचता है कि वह अपने भोगवाद का नियंत्रण स्वयं कर रहा है। प्रसिद्ध विचारक थार्नस्टाइन वैब्लैन ने ‘कॉन्स्पिक्युअस कन्ज़म्पशन’ कहकर इसका विरोध किया था, उन्होने कहा कि माध्यमों द्वारा ‘कॉन्स्पिक्युअस कन्ज़म्पशन’ प्रतिष्ठा से जोड़ दिया गया है। विश्व प्रसिद्ध विचारक हैनरी डेविड थोरो ने भी, जो भारतीय अध्यात्म से प्रभावित थे, सादे जीवन का प्रचार किया था। इसके फलस्वरूप ‘स्वैच्छिक सादा जीवन’ का प्रचलन कुछ बढ़ा और लोगों ने बहुत से कार्य अपने ही हाथों से करना शुरु किया। हालांकि पश्चिम के लिये यह बहुत नई बात नहीं थी क्योंकि ईसाई धर्म के कुछ पंथों में सादे जीवन के द्वारा भगवत्कृपा प्राप्त करने के उपदेश हैं; यह दूसरी बात है कि यह सादा जीवन कुछ पंथों द्वारा तीव्र स्वदमन की स्थिति तक ले जाया गया, इस विश्वास के साथ कि यह उन्हें भोगों के लोभ से बचाएगा।
बीसवीं सदी में भी अर्थशास्त्री राल्फ बौर्शाख और स्कॉट नियरिंग, नृशास्त्री एवं कवि गैरी स्नाइडर, कथाकार अर्नैस्ट कैलैनबाख, गाँधीवादी रिचर्ड ग्रैग आदि कुछ व्यक्तियों ने भी भोगवाद का विरोध किया। इसका उद्देश्य पैसे बचाना न होकर भोग की इच्छाओं को कम करना था; साथ ही जीवन का नियंत्रण भी बड़ी बड़ी कम्पनियों के हाथ से बचाने का भी एक ध्येय था। बाद में इस आन्दोलन को प्रकृति संरक्षण आन्दोलन से बहुत बल मिला। विज्ञापनों को भी नज़रअंदाज़ करने की मांग की गई और यू एस में एक या दो ऐसे टीवी तथा रेडियो स्टेशन हैं जो बिलकुल विज्ञापन नहीं देते और वे जनता के सहयोग से ही चलते हैं। यह मार्ग भोगवाद का विरोध करने वालों के लिये अनुकरणीय है।यह आन्दोलन हाशिये पर ही चल रहा है क्योंकि एक तो इस विरोधके मूल में संपुष्ट जीवन दर्शन नहीं है; दूसरे, इस पाश्चात्य प्रकृति - संरक्षण के मूल में मानव का स्वार्थ ही है। तब विभिन्न स्वार्थों की तुलना होने लगती है, यू .एस. कहता है कि वन यदि बचाना है तो हम यू.एस. में बचाकर अमेज़ान में उतने काट लेते हैं क्योंकि यह अधिक लाभदायक है! भोगवाद के विरोध का विरोध स्वच्छंदतावादियों ने भी किया।
वास्तव में आधुनिक प्रौद्योगिकी के द्वारा बहुल उत्पादन से उपलब्ध भोग हेतु सस्ती वस्तुओं के कारण भोगवाद विकसित देशों में सैक्सी तथा रंगीन माध्यम के बल पर कुकरमुत्तों की तरह फलफूल रहा है। और कुछ विचारकों ने भी भोगवाद के प्रचार में उद्योगपतियों का साथ देना शुरु कर दिया है। वे विकासशील देशों में अपनी औद्योगिक शक्ति के बल पर तथा सैक्सी माध्यमों के द्वारा भोगवाद का प्रचार करने में आशातीत सफलता और धनलाभ प्राप्त कर रहे हैं। औद्योगिकी तथा पूंजीवाद प्रेरित भोगवाद ने जीवन की आवश्यकता और विलासिता में भेद मिटाकर विलासिता को ही आवश्यक बना दिया है। भोगवाद से लोगों के जीवनस्तर में उन्नति निश्चित होती है; और आवश्यकता भी क्या व्यक्ति की क्रय शक्ति पर निर्भर नहीं करती! लोग अपनी क्रय शक्ति बढ़ाएं और उसे अनुसार भोग करें। भोगवाद में आखिर क्या खराबी है ?
एक खराबी तो यही है कि यह पृथ्वी समस्त जीवों की आवश्यकता तो पूरी कर सकती है किन्तु एक व्यक्ति का अनियंत्रित भोग नहीं, किन्तु यह तर्क स्वार्थी भोगी को मान्य नहीं ही होगा। हमें और विचार करना चाहिये।मेरी एक कविता की पंक्तियां प्रासंगिक लगती हैं:
“ जब लोग कंचन मृग का शिकार करेंगे
तब रावण ज़रूर सीता चुराएंगे।”
इस पर विचार करने से भोग की अति का दुखद परिणाम तो समझ में आना चाहिये। ऋषियों ने यह भी अवलोकन किया कि मानवीय संबन्ध के मुख्यतया तीन आधार होते हैं : प्रेम, व्यापार तथा शक्ति; ये आधार अधिकांशतया मिले जुले होते हैं।मां का संतान से, दूकानदार का ग्राहक से तथा नौकरी में मालिक तथा नौकर के संबन्ध क्रमशः इन संबन्धों के उदाहरण हो सकते हैं। भोग ही जीवन मूल्य हो तब जीवन के संबन्ध भी भोगवाद द्वारा निर्धारित होंगे। और भोगवाद का आधार होता है ‘मैं’, अर्थात मनुष्य अपने लिये भोग को सर्वाधिक महत्व देता है। उसके लिये पूरी प्रकृति तथा समाज भोग के साधन ही हैं। यदि वह नौकरी करता है तो उसका ध्येय अपने भोग के लिये संसाधन का अर्जन ही है। इसमें पति तथा पत्नी के संबन्ध भी परस्पर भोग पर आधारित होते हैं; पति अपने वेतन में से एक हिस्सा. तथा पत्नी अपने वेतन में से एक हिस्सा परिवार खर्च के लिये रखकर शेष अपने अपने भोग के लिये रखते हैं। व्यापारियों ने बच्चों को भी अधिकार दिलाने के नाम पर आंदोलन चलाया, तब बच्चों के लिये भी एक हिस्सा बनाना पड़ा। मानव जाति का दुर्भाग्य कि विकसित देशों में बच्चे अपने अधिकार के लिये पुलिस द्वारा बाकायदा न्यायालय ले जाए जाते हैं। तलाक का एक दुष्परिणाम यह तो है कि माता पिता अपने सौतेले बच्चों के साथ संभवतः अपेक्षित प्रेमपूर्ण व्यवहार न कर पाएं, किन्तु यह तो निश्चित है कि सगे माता पिता का अपनी संतान से जो प्रेममय सम्बन्ध है, इस पुलिस की दखल से उसमें दरार पड़ गई है। जो कार्य संस्कृति का है उसे संस्कृति को ही करने देना चाहिये। पाश्चात्य व्यक्तिवाद ने व्यक्ति को समाज की अपेक्षा प्राथमिकता देकर पहिले ही समाज में ही विघटन डाल दिया था, अब भोगवाद ने परिवार में भी उससे भयंकर विघटन डाल दिया है। इनको जोड़ने का और इनमें सहयोग का सूत्र अब मात्र भोग रह गया है। इसमें मनुष्य तथा पशु में अन्तर मुख्यतया भोगवाद की सामग्री का ही अंतर होता है। मनुष्य तथा पशु में भोग के गुण यथा ‘आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन’ एक समान होते हैं, तथा उनमें अंतर नैतिकता, प्रेम, त्याग आदि दैवीय ( वास्तव में मानवीय) गुणों का होता है। जब भोग प्रधान हो गया तब मानवीय गुण गौड़ से गौड़तर होते जाते हैं। निस्संदेह भोगवाद मनुष्य को पशु बना देता है और अनियंत्रित भोगवाद उसे जंगली खूंख्वार पशु बना देता है। यू .एस आदि विकसित देशों में यह व्यवहार सभ्यता की चादर के नीचे चल रहा है। यह सब राक्षसी व्यवहार हम अब अपने समाज में, विशेषकर महानगरों में चुपचाप देख रहे हैं। तब क्या मानवीयता बचेगी? अनेक पाश्चात्य विचारकों को इसमें संदेह है, वे भारत की ओर आशा से देख रहे हैं। इसका आशाजनक उत्तर भारतीय संस्कृति में ही मिल सकता है, जो भारतीय संस्कृति अब व्यवहार में नहीं बची है किन्तु सिद्धान्तों में अभी भी बची है। यदि हम भारत में अपनी उदात्त संस्कृति के पुनर्जागरण के लिये कुछ आंदोलन नहीं करते हैं तब मानवीयता का भविष्य उज्ज्वल नहीं।
भारतीय संस्कृति को मैं इस अवसर के लिये वैदिक संस्कृति कहूँगा; इसके पहिले कि कोई सैक्युलर आदमी लाल झंडा लेकर खड़ा हो जाए और कहे कि भारतीय संस्कृति वैदिक संस्कृति नहीं वरन गंगा जमुनी संस्कृति है जिसमें अनेकानेक जातियों का भी योगदान है; मैं इसका विरोध न करते हुए; भारत के पूर्व राष्ट्रपति महामना ए .पी .जे .अब्दुल कलाम को उद्धृत करना चाहता हूं : “वेद भारत के सबसे पुराने तथा सर्वाधिक मूल्यवान रत्नकोष हैं।भारतीय संस्कृति की आत्मा वेदों में निवास करती है।” (दीनानाथ मिश्र, ‘फ्रैंकली यौर्स कॉलम’, ‘पायोनियर, अंतिम सप्ताह, अक्टोबर 05 )।वैदिक संस्कृति का क्षितिज बहुत विशाल है, मैं यहां उसका अपने विषय की दृष्टि से संबन्धित ज्ञान ही लूंगा। वैदिक संस्कृति में जीवन की मूल प्रेरणाओं की दृष्टि से केवल हिन्दुओं का नहीं वरन समस्त मानव विकास का दिग्दर्शन है। वैदिक संस्कृति जो संस्कार देती है वह शिशु के मानव बनने के विकास में मानवीय संवेदनाओं सहित जीवन के अभ्युदय तथा निश्रेयस दोनों सिद्ध करने में सहायता करती है।
यह वेदों से ही निसृत होता है कि भोग तो मानव में सहज व्यवहार है,।कठोपनिषद की तीसरी वल्ली के चौथे मंत्र में स्पष्ट कहा है :
“आत्मेंद्रिय मनोयुक्तं भोक्तेत्याहुः मनीषिणः।।” अर्थात, ‘जब मनुष्य के मन तथा इंद्रियां मिलकर काम करती हैं तब वह भोक्ता कहलाता है।’ और मानवीय संस्कार न मिलने पर यह सहज वृत्ति भोगवाद में परिणित हो जाती है। वैज्ञानिकों तथा अन्य दार्शनिकों द्वारा 'अतिजीविता और संतति की सुरक्षित प्रगति' जीवन की मूल प्रेरणा मानी जाती है। इसके लिये या तो अन्य जाति का विनाश या प्रेमपूर्वक उससे सामंजस्य दो ही मार्ग हैं। अन्य का विनाश भोगवाद को बढ़ाता है, और भोगवाद अन्य के विनाश को। वैदिक संस्कृति ने प्रेम का मार्ग ही उपयुक्त समझकर अपनाया है, इसमें सम्यक भोग को बढ़ावा मिलता है। साथ ही वैदिक ऋषियों ने कहा कि सभी को अपने अपने मार्गों पर चलने की स्वतंत्रता देना ही उचित है, और उदारता के मंत्र ‘एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति’ का भी उद्घोष उन्होने ही किया। इसके साथ ही जीवन जीने के मार्गों का भी उन्होने अन्वेषण किया, केवल गुफा में बैठकर ध्यान लगाकर नहीं, वरन जीवन की कर्मभूमि में रचबसकर किया।
कठोपनिषद की चतुर्थ वल्ली के प्रथम मंत्र में कहा है :
“परांचिखानिव्यतृणत् स्वयंभूःतस्मात् परांग पश्यति नान्तरात्मन्।”
‘परमात्मा ने इंद्रियों को बाहर की ओर जानेवाला बनाया है, इसलिये ही वह बाहर की ओर देखता है, अन्दर अर्थात आत्मा की ओर नहीं।’ इच्छाओं के विषय में गीता के दूसरे अध्याय के 62वें श्लोक में श्रीकृष्ण ने कहा है,
“ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूप जायते, संगात्संजायते कामः . . .”, अर्थात, ’भोग्य वस्तुओं के मन में लाने से उनकी इच्छाएं उत्पन्न होती हैं, अर्थात इंद्रियों और पदार्थों के संयोग से मन में इच्छाएं उत्पन्न होती हैं।’ ये इंद्रियां जीवन की मूल प्रेरणा के अनुसार भोग की इच्छा पूरी करना चाहती हैं। प्रकृति ने हमें ऐसा बनाया है कि भोग करने में सुख मिलता है, और सुख की चाह हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इस तरह जीवन में भोग स्वाभाविक है, और आवश्यक भी।
ऋग्वेद की ऋचाएं मुख्यतया देवी देवताओं की स्तुतियां हैं, जिनका उद्देश्य मनुष्य को प्रेरणा देकर आनन्द और उत्साहपूर्वक जीवन जीते हुए देवत्व की ओर ले जाना है। वेदों के संहिता, ब्राह्मण तथा आरण्यक विभागों में (संहिता को पंडितजन वेद कहते हैं, ब्राह्मण तथा आरण्यक व्याख्याएं हैं संहिता के मंत्रों की) वर्णित यज्ञों का प्रमुख उद्देश्य जीवन में कामनाओं की पूर्ति के लिये संसाधन प्राप्त करना है, अर्थात भोग ही है। वेदों के चार विभागों में उद्देश्यों के आधार पर विभाजन तो हैं किन्तु वे अभेद्य नहीं हैं। संहिता के मंत्रों की कर्मकाण्डी व्याख्या ब्राह्मण में तथा आध्यात्मिक व्याख्या आरण्यकों में मिलती है। ब्राह्मण तथा उपनिषद के बीच आरण्यक एक सेतु का कार्य करते हैं। यजुर्वेद का विषय मुख्यतया कर्मकाण्ड है, जिसके ब्राह्मणों में अश्वमेध से लेकर पुरुषमेध, पितृमेध और सर्वमेध तक के यज्ञों का, तथा अन्य यज्ञों का कारण - कार्य सहित वर्णन है जो पादार्थिक समृद्धि के लिये अनुशंसित हैं। किन्तु उसमें पुरुष सूक्त जैसा आध्यात्मिक सूक्त भी है; वैसे तो ईशावास्य उपनिषद शुक्ल यजुर्वेद की संहिता का ही अंश है। यज्ञ शब्द के तीनों अर्थ, यथा अभिधा, लक्षणा और व्यंजना उपयोग में आते हैं। उपनिषदों में त्याग, समन्वय तथा अमृतत्व की भावना प्रचुर है, यद्यपि वेदों के अन्य तीनों विभागों में भी दान तथा त्याग की भावनाएं मिलती हैं। दान तथा इदन्नमम् की भावनाओं के साथ, यज्ञों तथा सूक्तों के मुख्य प्रयोजन स्वर्ग, पुत्र, यश, तथा धन आदि की प्राप्ति हैं; यहां तक कि स्त्री प्राप्ति आदि के लिये जादू टोने भी हैं। ऋग्वेद में भी, जो कि ज्ञान प्रधान है, जादू टोने संबन्धित 40 ऋचाएं हैं। यह ध्यातव्य है कि वैदिक काल में इन संसाधनों के अर्जन के आधार में अर्थात भोग में धर्म या नैतिकता थी जिसे बल देने के लिये पाप का डर भी था। उपनिषदों के पूर्व तीन पुरुषार्थ ही प्रधान थे, धर्म, अर्थ तथा काम। मोक्ष या अमृतत्व या सच्चिदानन्द तो उपनिषद काल में चौथा पुरुषार्थ स्थापित हुआ, जब यह ज्ञान हुआ कि भोग से ऐसा सुख नहीं मिल सकता जिससे तृप्ति तथा शांति प्राप्त हो। क्योंकि चार्वाक दर्शन का ‘ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत’ भी लोगों ने भोगकर देख लिया था; जिसमें भोग के लिये नैतिकता को भी धता बता दिया गया था। दृष्टव्य है कि अनुभव तथा चिंतन के परिणामस्वरूप वेदों तथा अन्य शास्त्रों में चार्वाक दर्शन का सदा ही तिरस्कार किया गया है। अर्थात वेदों में भोगवाद को स्वीकार करते हुए अनैतिक भोगवाद को निश्चित ही अस्वीकार किया गया है, इसीलिये स्वर्ग की प्राप्ति के लिये पुण्यकर्म करना आवश्यक है। और आज ‘ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत’ समाज में सम्मान्य है, बैंकों के कार्य तथा पादार्थिक उन्नति इस सिद्वान्त पर कार्य कर रहे हैं। अतएव वैदिक भोगवाद आज के औद्योगिकी भोगवाद से भिन्न था। वेदों में अतिभोग का सीधा विरोध कम ही मिलता है क्योंकि वहां तो अर्थाजन धर्मसम्मत विधियों द्वारा ही सम्मान्य था; यद्यपि अतिभोग पर नियंत्रण रखने के लिये प्रकृति संरक्षण की भावना निश्चित मिलती है, किन्तु वह भावना स्वार्थ की दृष्टि से नहीं, वरन ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की दृष्टि पर आधारित है। इसीलिये पृथ्वी को माता का स्थान दिया गया है। अथर्ववेद में ‘माता भूमिः पुत्रोअहं पृथिव्याः’, मंत्र का उद्घोष है।
वेदों का विकास काल सहस्रों वर्ष रहा है, जिसमें ऋषियों ने जीवन के विकास तथा सुख की खोज के लिये अनुसंधान किये हैं।’क्या भोग से सच्चा अर्थात संतोषजनक सुख मिल सकता है?’, इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिये प्रयोग और अवलोकन किये गए। उन्होने सहस्रों वर्षों भोगयुक्त जीवनों के अवलोकन से देखा कि भोग से मनुष्य तृप्त न होकर भोगों की दौड़ में ही लगा रहकर, सुख दुख के चक्र में फँसकर उत्तेजित, चिंतित और अंततः असंतुष्ट ही रहता है। उदाहरणार्थ, एक तरफ, राजा ययाति की भोग कामना इतनी तीव्र होती है कि वे, स्वार्थ में अंधे होकर, अपने पुत्र से ही उसका यौवन मांग बैठते हैं, और देखते हैं कि वे उसे भोगकर भी संतुष्ट नहीं हो पाते। इस घटना के द्वारा भोग की अति से भी असंतुष्टि तथा परिवार का टूटना भी दिख जाता है। दूसरी तरफ, वामाचार या वामतंत्र भी है। इसमें जो प्रयोग ऋषियों ने किये वे सुख की खोज में अद्वितीय तो हैं ही उनके परिणाम विश्वसनीय भी हैं। वामाचार में प्रत्येक साधक को उसकी कामना और क्षमता के अनुसार भोग करने के संसाधन दिये जाते थे, जिन्हें पंच मकार कहते हैं, यथा, मांस, मदिरा, मछली, मुद्रा तथा मैथुन। इस वामाचार को राजाओं का भी प्रश्रय प्राप्त था जिनकी सहायता से ऐसी साधना संभव हो सकती थी। इन साधकों के अतिभोग का उद्देश्य वास्तव में मोक्ष या सच्चे सुख की प्राप्ति था, किन्तु उन्हें वह नहीं मिला। उन्होने भी देखा कि शरीर की क्षमता समाप्त होने लगती है किन्तु कामनाएं यदि बढ़ती नहीं तो कम भी नहीं होतीं।
इस तरह के प्रयोगों के चलते, ऋषियों ने बाहर की ओर न जाकर अंदर अर्थात आत्मा की ओर जाना भी प्रारंभ किया, और इसमें कालान्तर में उन्होने अनंत आनन्द और संतोष प्राप्त किया। ऐसे आन्तरिक अनुसंधान और उनके अनुभव उपनिषदों में वर्णित हैं। उदाहरणार्थ, कठोपनिषद में जब नचिकेता यम से तीसरे वरदान में आत्मज्ञान मांगता है, तब वे उसे आत्मज्ञान की कठिनता का आभास देते हुए सलाह देते हैं कि वह पृथ्वी पर राज्य के साथ जितने सुख उपलब्ध हैं, उनसे भी अधिक सुख मांगे, वे सब उसे देने को तैयार हैं। किन्तु नचिकेता ने, यह कहकर कि ‘न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो’, (धन से मनुष्य तृप्त नहीं हो सकता) आत्मज्ञान ही मांगा। यम द्वारा प्रदत्त ज्ञान के निष्कर्ष का एक मंत्र है :
“यथा सर्वे प्रमुच्यंते कामा ये अस्य हृदिश्रिता :, अथ मर्त्यो अमृतः भवति अत्र ब्रह्म समश्नुते।” अर्थात जब मनुष्य हृदय में स्थित कामनाओं से मुक्त हो जाता है, तभी वह मरणशील मनुष्य अमरता प्राप्त कर लेता है और यहीं ब्रह्म अर्थात परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। सत्, चित् और आनन्द ही ब्रह्म के पर्याय हैं। अर्थात उसे अनन्त आनन्द की प्राप्ति हो जाती है, फिर उसे एंद्रिय सुखों की हाय हाय नहीं रहती। यहां कामना से मुक्त होने का अर्थ भोग की कामनाओं से मुक्ति ही है। भोग की कामनाओं से मुक्त होना एक लम्बा विषय है जिस पर चर्चा यहां अभीष्ट नहीं; किन्तु संक्षेप में ईशावास्य उपनिषद के प्रथम मंत्र के द्वारा महत्वपूर्ण प्रकाश डाला जा सकता है :
“ईशावास्यं इदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत। तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा ग्रधः कस्यस्विधनम्।।” ‘इस परिवर्तनशील संसार में जो कुछ भी है वह सब ईश्वर से व्याप्त है। इस संसार का त्यागपूर्वक भोग करो, किसी अन्य के स्वर्ण पर मत ललचाओ।’ इस मंत्र में दो सर्वाधिक विरोधी अवधारणाओं का अद्वितीय समन्वय किया गया है।यह समन्वयित अवधारणा विश्व में केवल भारत में ही मिलती है।यहां ‘त्याग’ शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है।इसे वेदान्त की प्रस्थानत्रयी के ग्रन्थ श्रीमद्भगवत गीता में समुचित रूप से समझाया गया है। 18वें अध्याय के प्रथम श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं :
‘काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्यासं कवयोविदु :। सर्वकर्मफल त्यागं प्राहु :त्यागं विचक्षणा :।।’ कितने ही पंडितजन स्त्री, पुत्र और धन के अर्जन आदि काम्य कार्मों के त्याग को ही त्याग कहते हैं। किन्तु विचारशील विद्वान कर्मों के फल के त्याग को ही त्याग कहते हैं।और नौवें श्लोक में वे इस अर्थ की पुष्टि करते हैं :
“कार्यं इत्येव यत्कर्म नियतं क्रियते अर्जुन।संगं त्यक्त्वा फलं चैव स त्याग : सात्विको मत :।।” ‘आसक्ति तथा फल के त्याग के साथ ‘नियत कर्तव्यों’ को करना ही सात्विक त्याग है।’
यह दृष्टव्य है कि उपनिषदों के इस त्यागमय भोग की अवधारणा में तथा वेदों के भोग की अवधारणा में विरोध है। वेद वर्णित भोग में ऐंद्रिय सुख की अपेक्षा है जब कि औपनिषिदिक भोग में ऐंद्रिय सुख ध्येय नहीं है यद्यपि वह केवल इसलिये भी त्याज्य नहीं है कि वह ऐंद्रिय है। ऋषियों ने यह भी अवलोकन किया कि सहज भोग का विरोध नहीं करना है, त्यागमय भोग की आवश्यकता भोग करने के बाद ही समझ में आती है। इसीलिये उन्होने जीवन को चार आश्रमों बॉंटा, जीवन जीने के लिये पशुओं के बरअक्स, मनुष्य को शिक्षा नितान्त आवश्यक है, अतएव ब्रह्मचर्याश्रम आवश्यक है; संसार में जीवन चलना चाहिये और भोग भी करना चाहिये, इसलिये गृहस्थाश्रम; संसार में मन इंद्रियों द्वारा बाहर ही बाहर जीवन जीने के बाद तथा भोग की सीमा समझने के बाद, अपने अन्दर जाकर आत्मा का दर्शन करने के लिये अरण्याश्रम, तथा ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने से समाज के प्रति जो सेवाभाव उत्पन्न होता है उसे पूरा करने के लिये सन्यासाश्रम। और इस प्रगति को ऋषियों ने बिना भोग की निन्दा किये हुए समझाया है। कठोपनिषद में ही नचिकेता यम से दूसरे वरदान में सामान्य जन के लिये गृहस्थाश्रम में ऐसे ही स्वर्गिक भोगों को उपलब्ध कराने वाले यज्ञ का वरदान मांगता है जो उसे मिलता है। किन्तु तीसरे वरदान में वह भोगप्रद सुख के स्थान पर अरण्याश्रम हेतु सच्चा सुख अर्थात आत्मज्ञान मांगता है।अर्थात वह वेदों के भोग को नकारता नहीं है, यद्यपि वह स्वयं उऩ्हें अपने लिये नहीं माँगता। गीता में, जो कि वैदिक काल के अन्त समय की रचना है, श्रीकृष्ण यज्ञों की प्रशंसा तो करते हैं किन्तु उनकी सीमा दर्शाते हुए, यथा नौवें अध्याय के 21 वें श्लोक में कहते हैं :
‘ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति। एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्नागतागतं कामकामा लभंते।।’ ‘वे लोग जो यज्ञादि कर्मों से स्वर्गलोक प्राप्त करते हैं, पुण्यों के क्षीण होने पर बारबार मृत्यु लोक में जन्म लेते हैं।’ किन्तु दूसरे अध्याय के 42से 44 वें श्लोक में वे वेदों तथा आत्यंतिक भोगों की निन्दा करते हुए कहते हैं :
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्ति अविपश्चित:। वेद वादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन :।।
कामात्मान : स्वर्गपराजन्मकर्मफल प्रदाम् । क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् । व्यसायात्मिका बुद्धि : समाधौ न विधीयते।।
‘जिनकी बुद्धि में वेदों में वर्णित स्वर्ग ही कर्मफल द्वारा प्राप्य सर्वश्रेष्ठ भोग है, उससे श्रेष्ठ कुछ अन्य नहीं है, जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, ऐसे विवेकहीन व्यक्ति भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये अनेक प्रकार के कर्मों की बहुत सी क्रियाओं का श्रांगारिक भाषा में वर्णन करते हैं; जब कि ऐसे कर्मों का फल पुनर्जन्म में होता है, अर्थात मोक्ष नहीं मिलता।ऐसी वाणी द्वारा जिनका मन हर लिया गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्य में आसक्त हैं उनकी बुद्धि परमात्मा में एकाग्र नहीं होती।’ यहां पर वेदों में वर्णित भोग की निंदा करते हुए उसका निश्चित नकार है, जिसकी पुष्टि अगले श्लोक में होती है :
त्रैगुण्य विषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। निर्द्वन्द्वो नित्य सत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।
‘वेद तीनों गुणों अर्थात सत्व, रज तथा तमस् की अर्थात एंद्रिय भोग की बात करते हैं। अतः अर्जुन तुम तीनों गुणों से मुक्त हो; उन हर्ष शोक, सुख दुख आदि द्वन्द्वों से मुक्त होकर, सांसारिक उपभोग की वस्तुओं में न उलझकर चेतन तत्त्व में स्थित होकर आत्मा का दर्शन करो।’ दृष्टव्य यह है कि उपनिषदों में भोग की वर्जना नहीं है, जो जीवन के लिये आवश्यक है वह भोग करना है, केवल भोग के लिये भोग की वर्जना है। भोगों की कामना नहीं करना है, संक्षेप में यही त्यागमय भोग है, जिससे भौतिक जीवन भी सुखी रहता है, और मानसिक जीवन भी क्योंकि तब मनुष्य परिहार्य दुखों में नहीं फँसता; वह औद्योगिकी भोगवाद में फँसकर पशु या राक्षस नहीं बनता, उसमें मानवता बनी रहती है। यह गलत भावना भी प्रचलित है कि भारतीय धर्म निवृत्ति मार्गी हैं जो जीवन से दूर ले जाते हैं। कुछ मार्ग ऐसे हो सकते हैं, किन्तु अनेक तो गृह्स्थाश्रम में रहते हुए निवृत्ति की बात करते हैं।ईशावास्य के 11 वें मंत्र में कहा है :
“विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयंसह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते।।
इसका अर्थ हे कि जीवन में सांसारिक विद्या की आवश्यकता है जिससे इस संसार की जीवन यात्रा पूरी होती है; साथ ही अध्यात्म विद्या की भी आवश्यकता है जिससे मनुष्य को अमरत्व अर्थात सच्चा सुख प्राप्त होता है।
एक हजार वर्षों की गुलामी के कारण यह भारतीय संस्कृति अब हमारे व्यवहार में से लुप्त हो रही है, अतः इसकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य बनता है। संस्कृति भाषा, भूषा, भजन, भोजन, व्यवहार आदि के द्वारा संचरित होती है। संस्कृति के इन सभी वाहनों पर आज विदेशी भाषा सवार है, तब इसमें क्या आश्चर्य कि हम अपनी संस्कृति तेजी से खो रहे हैं।संस्कृति के सभी वाहनों को पुष्ट करना हमारा प्रथम कर्तव्य हो जाता है।चूंकि भाषा संस्कृति का सर्वाधिक शक्तिशाली माध्यम है, भाषा पर हमें विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। स्वतंत्रता पश्चात लिये गए गलत निर्णयों के कारण अंग्रेजी हम पर आज भी राज्य कर रही है। भारत के विकास करने के लिये पाश्चात्य सभ्यता की नकल करना अनिवार्य माना गया था और माना जा रहा है। फलस्वरूप हम पाश्चात्य संस्कृति के सभी अंगों की नकल करने में गौरव का अनुभव करते हैं; जब कि मानवता के लिये आवश्यक ज्ञान हम उन्हें निश्चित सिखा सकते हैं। अंग्रेजी आज रोजी रोटी की भाषा है अतः लोग चाहते हुए या न चाहते हुए अंग्रेजी की गुलामी कर रहे हैं। हमें भारतीय भाषाओं में ही अपना जीवन जीना चाहिये, तभी हमारी संस्कृति जीवित रहेगी, और हम विज्ञान में अग्रणी पंक्ति में आ सकेंगे और इस विप्रौ युग में सम्मानपूर्वक रह सकेंगे। यह में किसी देश के प्रति अंधभक्ति के कारण नहीं कह रहा हूं, वरन इसलिये कि वह मानवता को जीवित रखेगी।मेरा तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि हम अंग्रेजी न पढ़ें, अवश्य पढ़ें, किन्तु एक अत्यंत उपयोगी विदेशी भाषा की तरह पढ़ें।किसी भी हालत में अंग्रेजी रोजी रोटी की भाषा न बनी रहे।अंग्रेजी का ज्ञान भारतीयों के लिये आवश्यक है, किन्तु सभी भारतीयों के लिये नहीं; मात्र दो या चार प्रतिशत लोगों के लिये अंग्रेजी सीखना देश की प्रगति के लिये पर्याप्त होगा। जब अंग्रेजी भाषा को प्राप्त विशेष आर्थिक शक्ति समाप्त हो जाएगी तब अंग्रेजी के लिये जो मोह है वह स्वतः ही समाप्त हो जाएगा।
यह विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी (विप्रौ) का युग है, विशेषकर कम्प्यूटर, संचार तथा जैव प्रौद्योगिकी का युग है। चूंकि हम विप्रौ में पिछड़े हुए हैं, हमें यह ज्ञान बाहर से लेना अनिवार्य है। इसके लिये कुछ ही लोगों के द्वारा अंग्रेजी सीखने से हमारा वांछित कार्य हो सकेगा। साथ ही यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि जब तक हम अंग्रेजी में विज्ञान पढ़ते रहेंगे हम विप्रौ में अग्रिम पंक्ति में नहीं आ सकेंगे। उपग्रह के क्षेत्र में हमारी प्रगति प्रशंसनीय अवश्य है किन्तु यह एक अपवाद है। सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में भी हम अधिकांशतया कुशल 'कुली' ही पैदा कर रहे हैं। विज्ञान अंग्रेजी भाषा में हमें 1835 से पढ़ाया जा रहा है, और हमने सत्येंद्र नाथ बोस के समान एक दो वैज्ञानिक पैदा भी किये, किन्तु रमन के समान नोबल पुरस्कृत एक ही कर पाए। वैज्ञानिक अनुसंधान में हमारे प्रपत्रों की संख्या, इज़राएल से तो तुलना ही न करें, दक्षिण कोरिया जैसे देशों से भी कम रहती है, क्योंकि विदेशी भाषा में किसी का भी स्वतंत्र सोच, नवीकरण तथा आविष्कार की प्रवृत्ति का विकास कम ही होता है। ये देश सारी शिक्षा अपनी मातृभाषा में ही करते हैं।इज़राएल की आबादी भारत की दशमांश है और विज्ञान में उन्हें हमसे कई गुने नोबल पुरस्कार मिलते हैं, क्यों? मातृभाषा में सीखे गए ज्ञान का ही सृजनात्मक उपयोग हो सकता है, क्योंकि सृजन की भाषा का मातृभाषा होना स्वाभाविक है। अंग्रेजी रोटी कमाने के लिये पढ़ी जाती है तथा जीवन मातृभाषा में जिया जाता है। इससे एक तो हीन भावना पैदा हो जाती है और दूसरे स्वयं व्यक्ति के व्यक्तित्व में दरार पड़ जाती है। हम अधिकतर समस्याओं के हल के लिये पश्चिम का ही मुंह ताकते रहते हैं। वैज्ञानिक समझ का भी विकास नहीं हो पाता, और न उसका शिक्षित व्यक्तियों द्वारा प्रसार। सारे देश का नुकसान होता है, और देश के गैर अंग्रेजी पढ़े व्यक्तियों की प्रतिभा का उपयोग नहीं हो पाता।अतएव समस्त शिक्षा का विकसित मातृभाषाओं में ही होना ज़रूरी है।हिंदी, गुजराती, मराठी, बांग्ला, कन्नड़, तमिल, तेलुगु, मलयालम, उड़िया आदि भाषाओं में यह शक्ति है कि वे आधुनिकतम विप्रौ की शिक्षा भी इनमें दे सकती हैं।हिन्दी में अभी तक 5 लाख से भी अधिक वैज्ञानिक शब्दों का निर्माण हो चुका है और शब्दावली आयोग यह कार्य लगातार कर रहा है।ऐसा करने से हम विप्रौ में भी बढ़ते रहेंगे तथा हमारी संस्कृति हमें राक्षसी भोगवाद से बचाकर मानव बनाती रहेगी।
यदि आप चाहते हैं कि आपका पौत्र निकट भविष्य में आपके वृद्ध पुत्र अर्थात अपने पिता को वृद्धाश्रम में न छोड़े, उसका अपनी पत्नियों से तलाक न होता रहे, तथा वह एक सुखी परिविरिक जीवन व्यतीत करे, उसमें मानवीय संवेदनाएं बनी रहें तब आपको चाहिये कि आप अपनी संतान तथा उनकी संतान की शिक्षा मातृभाषा में कराएं। इसके लिये आपको संगठन बनाकर आन्दोलन करना पड़ेगा।किसी को भी गुलामी से मुक्ति क्या बिना आन्दोलन के मिल सकी है? और आप चाहे राजनैतिक रूप से स्वतंत्र हों, किन्तु भाषा के रूप में आप स्वतंत्र नहीं हैं, अर्थात आपके सोच विचार तथा जीवन शैली भी पश्चिम से न केवलअत्यधिक प्रभावित हैं, वरन नियंत्रित हैं। आप अपनी सांस्कृतिक स्वतंत्रता भी मस्त मस्त होकर या करोड़पति बनने के चक्कर में खो रहे हैं। आज पढ़े लिखे व्यक्ति इस वैश्वीकरण के युग में शान से अंतर्राष्ट्रीय बनना चाहते हैं। बिना अपनी भाषाई स्वतंत्रता प्राप्त किये आपका और इस देश का भविष्य उज्ज्वल नहीं है। पश्चिम के बाजारू ग्लोबल विलेज के औद्योगिकी भोगवाद के स्थान पर हम तो वसुधैव कुटुम्बकम् तथा त्यागमय भोग को मानने वाले हैं।पहले आप अपने राष्ट्र की सम्मानजनक पहचान तो बनायें, तब अंतर्राष्ट्रीय बनें।जय मातृभाषा जयमातृभूमि जय हिन्द। .