पूरा परिवेश पश्चिमकी भेंट चढ़ गया है.उसे संस्कारित,योग,आयुर्वेद का अनुसरण कर हम अपने जीवनको उचित शैली में ढाल सकते हैं! आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक
Friday, April 9, 2010
Monday, April 5, 2010
परिवार
पश्चिमी वातावरण का दुष्प्रभाव हमारे संस्कारों पर हो रहा है,जिसके परिणाम स्वरूप हमारी परिवारिक एकता टूटती जा रही है.हर कोई अपनी स्वतंत्रता चाहता है. पुत्र सोलह वर्ष का होने पर उसके पिताजी उसे कुछ कह नहीं सकते. पिताजी बीमार होने पर भी पुत्र उनकी शुश्रूषा नहीं करता. हमारी संस्कृति करूणा से भरी है. किसी को भी दुख होने पर हम व्यथित हो जाते हैं, किन्तु पश्चिमी संस्कृति के ज्वार में हमारी यह भावना नष्ट होती जा रही है.एसे हालात में भी सत्संगी का परिवार एक आदर्श परिवार होना चाहिए. विग्यान ने बहुत विकास किया. लाईट मिली,अभिनव रास्तों का निर्माण हुआ. विग्यान ने मनुष्य को चंद्रमा पर भेजा,इंटरनेट और टी.वी. दिया,किन्तु उसमें अश्लीलता , मारामारी , चोरी इन सभी में लड़कों का आकर्षण होता है.टी.वी. को तो माता पिता भी इकट्ठा होकर देखते हैं. उसमें विवेक कैसा रहता ?सत्संग से,शास्त्रों के पठन से विवेक उदय होता है.अच्छी वस्तु ग्रहण करके बुरी वस्तुओं का त्याग करना वह हमें शास्त्र सिखाते हैं. अश्लील पुस्तक पढ़ने से जीवन बर्बाद होता है.
आज टी.वी. प्रत्येक घर में बैठ गया है,और सभी आनंद लूटते हैं माता-पिता,बेटा-बेटी,बहू,छोटे बालक सभी टी.वी. के सामने बैठ जाएँ फिर बालकों को बुजुर्गों के प्रति आदरभाव कैसे रहेगा ? परिवार में वृद्धों के लिए हमेशा आदर होना चाहिए और, बड़ों को भी एसा वर्तन रखना चाहिए कि यह मेरा परिवार है, उसे ऊपर उठाना है. लड़कों को पहले से ग्यान देना चाहिए. बालक को बचपन से ही हमारे संस्कार घरमंदिर से मिलने लगते हैं.
टी.वी. देखकर बालक क्या सीखेगा? छीनाझपटी, कलह,चोरी-डकैती,मद्यपान,जुआ खेलना इत्यादि,यह जानते हुए भी टी.वी.के मोहवश मनुष्य अपनी प्रतिष्ठा ,धन,समृद्धि ,खानदान,सब गवां देते हैं. हमारे संस्कार लुप्त होते गये.
हम अपने घर को मंदिर बनाएँ. प्रतिदिन शाम को घरसत्संग करें. गीता-भागवत,वचनामृत इत्यादि का पठन करें. हम बच्चों की अच्छी शिक्षा के लिए प्रबंध करते हैं,ठीक वैसे अच्छे संस्कार के लिए भी घरसत्संग का प्रबंध करें. भौतिक शिक्षा से जीवन-निर्माण नहीं होता,वह अध्यात्म संस्कारों से होता है. आज घर-घर में कलह, अशांति और दुख देखने को मिलता है.उसका कारण है कि ,धर्म से,अध्यात्म से, हमने मुख मोड़ लिया है. आध्यात्मिकता से जीवन में शांति मिलेगी.
जितना भौतिकवाद बढ़ेगा,उतनी संपति बढ़ेगी,और मनुष्य में दुर्गुण भी उतने ही बढ़ेगें. अतः घर में पहले से संतानों पर ध्यान दीजिए. संतानों को धमकाएँ मत, प्रेम से बात करें. प्रेम और वात्सल्य से की गयी बात इनके दिमाग में बैठेगी. बालकों की बात,चित्त देकर सुनें और उनको समझने का प्रयत्न करें,तो आपस में आत्मीयता बढ़ेगी और शांति मिलेगी.
टी.वी.की तरह अश्लील सामयिक भी हमारे संस्कारों कि धुलाई करते हैं,अतः अच्छा पढ़े. अच्छा पढ़ने से विचार भी अच्छे आते हैं,जो जीवन निर्माण करते हैं.अच्छे ग्रंथ घर में बसाएँ.भावी पीढ़ी को उनसे संस्कार प्राप्त होंगे.
गृहस्थाश्रम की वजह से धन की आवश्यकता होगी ही,और नौकरी,व्यवसाय सब करना होगा.किन्तु उसमें भी समय निकालकर सांयकाल एक-आध घंटा बच्चों के साथ व्यतीत करें.उनके साथ आनंद-प्रमोद करें,खेल करें,बैठकर थोड़ी बातें करें,इससे आत्मीयता बढ़ेगी,और बच्चे हमारी रूचि के अनुसार वर्तन करेंगे. प्रतिदिन एक समय का भोजन साथ में बैठकर लिया करें. इससे भी बच्चों से हमारी आत्मीयता बढ़ेगी.सह्भोजन करने वाले के मन भी साथ में एक बनकर रहतें हैं.
हमारे कुटुम्ब सुधरेगा तो समाज सुधरेगा और समाज सुधरेगा तो राष्ट्र सुधरेगा. अतः सत्संगी के घर में मनमुटाव कभी नहीं होना चाहिए. घर स्वच्छ,पवित्र रहना चाहिए.उसमें प्रवेश करते ही मन शांत हो जाए. प्रतिदिन भगवान की मूर्ति के समक्ष बैठकर मौन धारण करें. अंतस्थ हो,भगवान की धुन-प्रार्थना करें. सबसे ऊँची प्रेम सगाई.चाहे जैसा भी व्यक्ति हो उसको भी प्रेम से जीता जा सकता है. एक व्यक्ति का परिवर्तन होगा तो पूरा कुटुम्ब का परिवर्तन होगा.फिर समाज एवं देश तथा ब्रह्मांड का परिवर्तन होगा.
साभार :- स्वामीनारायण प्रकाश
पूरा परिवेश पश्चिमकी भेंट चढ़ गया है.उसे संस्कारित,योग,आयुर्वेद का अनुसरण कर हम अपने जीवनको उचित शैली में ढाल सकते हैं! आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक
पश्चिमी वातावरण का दुष्प्रभाव हमारे संस्कारों पर हो रहा है,जिसके परिणाम स्वरूप हमारी परिवारिक एकता टूटती जा रही है.हर कोई अपनी स्वतंत्रता चाहता है. पुत्र सोलह वर्ष का होने पर उसके पिताजी उसे कुछ कह नहीं सकते. पिताजी बीमार होने पर भी पुत्र उनकी शुश्रूषा नहीं करता. हमारी संस्कृति करूणा से भरी है. किसी को भी दुख होने पर हम व्यथित हो जाते हैं, किन्तु पश्चिमी संस्कृति के ज्वार में हमारी यह भावना नष्ट होती जा रही है.एसे हालात में भी सत्संगी का परिवार एक आदर्श परिवार होना चाहिए. विग्यान ने बहुत विकास किया. लाईट मिली,अभिनव रास्तों का निर्माण हुआ. विग्यान ने मनुष्य को चंद्रमा पर भेजा,इंटरनेट और टी.वी. दिया,किन्तु उसमें अश्लीलता , मारामारी , चोरी इन सभी में लड़कों का आकर्षण होता है.टी.वी. को तो माता पिता भी इकट्ठा होकर देखते हैं. उसमें विवेक कैसा रहता ?सत्संग से,शास्त्रों के पठन से विवेक उदय होता है.अच्छी वस्तु ग्रहण करके बुरी वस्तुओं का त्याग करना वह हमें शास्त्र सिखाते हैं. अश्लील पुस्तक पढ़ने से जीवन बर्बाद होता है.
आज टी.वी. प्रत्येक घर में बैठ गया है,और सभी आनंद लूटते हैं माता-पिता,बेटा-बेटी,बहू,छोटे बालक सभी टी.वी. के सामने बैठ जाएँ फिर बालकों को बुजुर्गों के प्रति आदरभाव कैसे रहेगा ? परिवार में वृद्धों के लिए हमेशा आदर होना चाहिए और, बड़ों को भी एसा वर्तन रखना चाहिए कि यह मेरा परिवार है, उसे ऊपर उठाना है. लड़कों को पहले से ग्यान देना चाहिए. बालक को बचपन से ही हमारे संस्कार घरमंदिर से मिलने लगते हैं.
टी.वी. देखकर बालक क्या सीखेगा? छीनाझपटी, कलह,चोरी-डकैती,मद्यपान,जुआ खेलना इत्यादि,यह जानते हुए भी टी.वी.के मोहवश मनुष्य अपनी प्रतिष्ठा ,धन,समृद्धि ,खानदान,सब गवां देते हैं. हमारे संस्कार लुप्त होते गये.
हम अपने घर को मंदिर बनाएँ. प्रतिदिन शाम को घरसत्संग करें. गीता-भागवत,वचनामृत इत्यादि का पठन करें. हम बच्चों की अच्छी शिक्षा के लिए प्रबंध करते हैं,ठीक वैसे अच्छे संस्कार के लिए भी घरसत्संग का प्रबंध करें. भौतिक शिक्षा से जीवन-निर्माण नहीं होता,वह अध्यात्म संस्कारों से होता है. आज घर-घर में कलह, अशांति और दुख देखने को मिलता है.उसका कारण है कि ,धर्म से,अध्यात्म से, हमने मुख मोड़ लिया है. आध्यात्मिकता से जीवन में शांति मिलेगी.
जितना भौतिकवाद बढ़ेगा,उतनी संपति बढ़ेगी,और मनुष्य में दुर्गुण भी उतने ही बढ़ेगें. अतः घर में पहले से संतानों पर ध्यान दीजिए. संतानों को धमकाएँ मत, प्रेम से बात करें. प्रेम और वात्सल्य से की गयी बात इनके दिमाग में बैठेगी. बालकों की बात,चित्त देकर सुनें और उनको समझने का प्रयत्न करें,तो आपस में आत्मीयता बढ़ेगी और शांति मिलेगी.
टी.वी.की तरह अश्लील सामयिक भी हमारे संस्कारों कि धुलाई करते हैं,अतः अच्छा पढ़े. अच्छा पढ़ने से विचार भी अच्छे आते हैं,जो जीवन निर्माण करते हैं.अच्छे ग्रंथ घर में बसाएँ.भावी पीढ़ी को उनसे संस्कार प्राप्त होंगे.
गृहस्थाश्रम की वजह से धन की आवश्यकता होगी ही,और नौकरी,व्यवसाय सब करना होगा.किन्तु उसमें भी समय निकालकर सांयकाल एक-आध घंटा बच्चों के साथ व्यतीत करें.उनके साथ आनंद-प्रमोद करें,खेल करें,बैठकर थोड़ी बातें करें,इससे आत्मीयता बढ़ेगी,और बच्चे हमारी रूचि के अनुसार वर्तन करेंगे. प्रतिदिन एक समय का भोजन साथ में बैठकर लिया करें. इससे भी बच्चों से हमारी आत्मीयता बढ़ेगी.सह्भोजन करने वाले के मन भी साथ में एक बनकर रहतें हैं.
हमारे कुटुम्ब सुधरेगा तो समाज सुधरेगा और समाज सुधरेगा तो राष्ट्र सुधरेगा. अतः सत्संगी के घर में मनमुटाव कभी नहीं होना चाहिए. घर स्वच्छ,पवित्र रहना चाहिए.उसमें प्रवेश करते ही मन शांत हो जाए. प्रतिदिन भगवान की मूर्ति के समक्ष बैठकर मौन धारण करें. अंतस्थ हो,भगवान की धुन-प्रार्थना करें. सबसे ऊँची प्रेम सगाई.चाहे जैसा भी व्यक्ति हो उसको भी प्रेम से जीता जा सकता है. एक व्यक्ति का परिवर्तन होगा तो पूरा कुटुम्ब का परिवर्तन होगा.फिर समाज एवं देश तथा ब्रह्मांड का परिवर्तन होगा.
साभार :- स्वामीनारायण प्रकाश
पूरा परिवेश पश्चिमकी भेंट चढ़ गया है.उसे संस्कारित,योग,आयुर्वेद का अनुसरण कर हम अपने जीवनको उचित शैली में ढाल सकते हैं! आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक
मनोविकार
तनाव प्रबंधन के कुछ सटीक सूत्र
तनाव मनः स्थिति से उपजा विकार है.मनः स्थिति एवं परिस्थिति के बीच असंतुलन एवं असामंजस्य के कारण तनाव उत्पन्न होता है. तनाव एक द्वन्द है, जो मन एवं भावनाओं में गहरी दरार पैदा करता है. तनाव अन्य अनेक मनोविकारों का प्रवेश द्वार है. उससे मन अशान्त,भावना अस्थिर एवं शरीर अस्वस्थता का अनुभव करते हैं.ऐसी स्थिति में हमारी कार्यक्षमता प्रभावित होती है और हमारी शारीरिक व मानसिक विकास यात्रा में व्यवधान आता है. इससे बचने का एकमात्र उपाय है -परिस्थिति के साथ तालमेल रखना , जिससे तनावरूपी मनोविकार को हटाया-मिटाया जा सके.
परिस्थिति को स्वीकार न करने पर तनाव पैदा होता है. यह तनाव कई प्रकार का होता है. पारिवारिक तनाव , आर्थिक तनाव, आफ़िस का तनाव ,रोजगार का तनाव, सामाजिक तनाव. मनोनुकूल परिस्थिति-परिवेश के अभाव में व्यक्ति उद्विग्न ,अशान्त एवं तनावग्रस्त हो उठता है. इसमें केवल एक व्यक्ति प्रभावित होता है, परन्तु यह सीमा जब व्यक्ति को लांघकर परिवार में पहुँच जाती है तो परिवार तनावग्रस्त हो जाता है.पारिवारिक तनाव से परिवार के संवेदनशील रिश्तों में दरार एवं दरकन् पैदा हो जाती है जिससे छोटी-छोटी बातों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर कलह एवं कहासुनी जैसी उलझनें खड़ी कर दी जाती हैं. सुन्दर व सुरम्य पारिवारिक वातावरण व्यंग्य और तानों का दंगल बन जाता है.
वैयक्तिक एवं पारिवारिक स्तर पर संपदा व संपति के सुनियोजन एवं सुव्यवस्था के अभाव में आर्थिक तनाव का जन्म होता है. उपभोक्तावादी अपसंस्कृति के कारण अपव्यय एवं जीवनशैली की अनियमितता में वृद्धि हुई है,जिससे यह संकट और भी गहरा हुआ है.सामाजिक तनाव समाज के विभिन्न घटकों,समूहों एवं वर्गों के बीच तालमेल के न होने से उत्पन्न होता है.आज का व्यक्ति , परिवार व समाज तनाव के इस विघटन,टूटन एवं दरकन् से ग्रस्त हैं. व्यक्ति हो या समाज,आज ये इस कदर तनावग्रस्त हैं की उन्हें अपना भार भी असह्य लग रहा है. वे अपने ही बोझ से दबे-कुचले किसी तरह अपनी गुजर-बसर कर रहें हैं.
तनाव परिस्थिति से नहीं मनः स्थिति से उपजता है.अगर ऐसा नहीं होता तो विपरीत एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आशा,उत्साह एवं उमंग की परिकल्पना नहीं की जा सकती. जीवट के धनियों एवं मनीषियों ने प्रतिकूलताओं में जीवन की राह खोजी है,अपने गंतव्य,लक्ष्य को प्राप्त किया है.सूरदास,अष्टावक्र,सुकरात आदि मनीषियों ने शारीरिक विकृति को हिनताजन्य तनाव नहीं माना और इसी समाज में उत्कर्ष व सफलता की बुलंदियों को स्पर्श किया.सन्त तुकाराम का पारिवारिक जीवन तनाव के घनघोर कुहाँसों में घिरा हुआ था,परन्तु वे इस कुहासा-हताशा के आवरण को चीरकर भक्ति की भावधारा में सदा सरोबार रहते थे.कबीरदास के जीवन में आर्थिक तनाव सघन घन बनकर बरसा था, परन्तु प्रभु के अलावा किसी के आगे उनने हाथ नहीं पसारे,याचना नहीं की और अलमस्त एवं आन्नदपूर्वक जिंदगी जीकर दिखा दी.सामाजिक निंदा,अपमान एवं तिरस्काररूपी गहन आंधी-तूफान के बीच मीराबाई ने कृष्णभक्ति की ज्योति जलाई. विपरीत परिस्थितियों में इन महामानव ने जितना कर दिखाया,उतना तो सामान्य एवं सहज परिवेश में भी संभव नहीं है. इसका एकमात्र कारण है,मनः स्थिति की सुदृढ़ता-सशक्तता. अतः तनाव परिस्थितियों में नहीं दुर्बल व अशक्त मनः स्थिति में वास करता है. मनीषियों व मनस्वियों को यह स्पर्श नहीं कर पाता है.
तनावजन्य मनोविकारों का आक्रमण केवल दुर्बल व कमजोर मानसिकताओं पर होता है. परिस्थिति तो सबके लिए समान होती है.एक ही परिस्थिति में रहने वालों में से संकल्पवान अपने इच्छित लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है और विकल्प तलाशने वाला केवल विकल्प तलाशते रह जाता है. परिस्थितिजन्य तनाव ही प्रमुख व प्रबल होता तो एवरेस्ट के शिखर पर चढ़ा नहीं जा सकता था . जिसका मन परिस्थिति से तालमेल नहीं बैठा पाता उसी के अन्दर तनावजन्य विकृतियाँ अपना जाल बुनती हैं. ऐसे व्यक्ति का तंत्रिकातंत्र मन के आवेग को संभालने हेतु असमर्थ होता है.कष्ट-कठिनाइयों का हल्का झोंका भी इन्हें तार-तार कर देता है.
तनाव मुख्य रूप से नर्वस सिस्टम को प्रभावित करता है. तनाव से यह तंत्रिकातंत्र अत्यंत सक्रिय हो जाता है. इसकी सक्रियता हृदयगति एवं शर्करा के स्तर को बढ़ाने में सहायक होती है. इससे घबराहट होती है एवं सिर भारी रहता है. ऐसी अवस्था में नकारात्मक विचार उठते हैं और मन में निराशा-हताशा के बादल मंडराने लगते हैं.
तनाव मन में उत्पन्न होता है.अतः तनाव से मन प्रभावित होता है. तनावजन्य नकारात्मक
एवं निषेधात्मक विचारों से शरीर की प्रतिरक्षात्मक प्रणाली पर भी विपरीत असर पड़ता है. तनाव की अवधि
में श्वेत रूधिर कोशिकाओं की सहज सक्रियता कम हो जाती है.ये कोशिकाएँ शरीर की रोगों से रक्षा करती हैं तथा शरीर को स्वस्थ एवं निरोग बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती हैं,परन्तु तनाव इस प्रतिरक्षात्मक
प्रणाली की मुस्तैदी को कम कर रोगों को प्रवेश करने का अवसर प्रदान करता है.
तनाव से मन में कई प्रकार के मनोविकार अपना स्थायी आवास बना लेते हैं. तनाव
से चिड़चिड़ापन पैदा हो जाता है. ऐसे व्यक्तियों का मानसिक संतुलन लगभग गड़बड़ा जाता है,परिणामस्वरूप नींद न आना, हताशा-निराशा,कल्पनाओं में खोए रहना, डरना आदि मनोरोगों का प्रादुर्भाव होता है. ऐसे लोगों में निर्णय करने की क्षमता नहीं होती है.
तनाव प्रबन्धन का प्रथम सूत्र है- वैचारिक खुलापन अर्थात आग्रह ,पूर्वाग्रह का अभाव . अच्छे विचारों को स्वीकृति एवं समर्थन देना चाहिए.इसी के आधार पर सहयोग- सदभाव की भूमि तैयार होती है. सहयोग से स्वार्थवृति मिटती है और सेवा का भाव पनपता है,जिससे अपना विश्वास प्रगाढ़ होता है. विश्वास ही विकास का मूल मंत्र है,उन्नति - प्रगति का साधन सोपान है. इस स्थिति में आकर ही स्वायत्तता की परिकल्पना की जा सकती है और स्वतंत्र रूप से अपनी योजना को कार्यरूप प्रदान किया जा सकता है.इसी में आंतरिक चेतना के परिष्कार तथा
वाह्या उन्नति की समस्त संभावनाएँ सन्निहित हैं.संभावना जब मूर्तरूप लेती है तो प्रामाणिकता के रूप में अभिव्यक्ति पाती है.
प्रामाणिकता आत्मविश्वास को जन्म देती है, तभी महान कार्य हेतु स्वयं का योगदान सम्भव हो सकता है और दूसरों का सहयोग मिल सकता है.तनाव प्रबंधन के इन सूत्रों में तनाव का समाधान समाहित है.इसके साथ आवश्यक है सर्वशक्तिमान ईश्वर के प्रति श्रद्धा-आस्था की भावना. ईश्वर सर्वसमर्थ है, वह हमारी सभी समस्याओं का समाधान ,हताशा के कुहासे में ज्योतिर्मय पथ प्रदर्शक है.
वह हमारे तनाव का निवारक भी है. वह हमारे सभी मनोविकारों के सघन जंजाल को काटकर उत्साह,आनंद एवं प्रकाश से भर सकता है.अतः उसकी स्मृति को हृदय में बनाए रखने के लिए गायत्री मंत्र की एक माला का न्यूनतम जप करना चाहिए.प्रत्येक दिन अपने नये जीवन का आत्मबोध एवं प्रत्येक रात्रि अपनी मृत्यु का अनुभव तत्त्वबोध भी तनावमुक्ति के लिए रामबाण साधन है. यही तनाव का एकमात्र निदान है और उच्चस्तरीय जीवन का पाथेय पथ भी है.
साभार :- अखण्ड ज्योति
पूरा परिवेश पश्चिमकी भेंट चढ़ गया है.उसे संस्कारित,योग,आयुर्वेद का अनुसरण कर हम अपने जीवनको उचित शैली में ढाल सकते हैं! आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक
तनाव प्रबंधन के कुछ सटीक सूत्र
तनाव मनः स्थिति से उपजा विकार है.मनः स्थिति एवं परिस्थिति के बीच असंतुलन एवं असामंजस्य के कारण तनाव उत्पन्न होता है. तनाव एक द्वन्द है, जो मन एवं भावनाओं में गहरी दरार पैदा करता है. तनाव अन्य अनेक मनोविकारों का प्रवेश द्वार है. उससे मन अशान्त,भावना अस्थिर एवं शरीर अस्वस्थता का अनुभव करते हैं.ऐसी स्थिति में हमारी कार्यक्षमता प्रभावित होती है और हमारी शारीरिक व मानसिक विकास यात्रा में व्यवधान आता है. इससे बचने का एकमात्र उपाय है -परिस्थिति के साथ तालमेल रखना , जिससे तनावरूपी मनोविकार को हटाया-मिटाया जा सके.
परिस्थिति को स्वीकार न करने पर तनाव पैदा होता है. यह तनाव कई प्रकार का होता है. पारिवारिक तनाव , आर्थिक तनाव, आफ़िस का तनाव ,रोजगार का तनाव, सामाजिक तनाव. मनोनुकूल परिस्थिति-परिवेश के अभाव में व्यक्ति उद्विग्न ,अशान्त एवं तनावग्रस्त हो उठता है. इसमें केवल एक व्यक्ति प्रभावित होता है, परन्तु यह सीमा जब व्यक्ति को लांघकर परिवार में पहुँच जाती है तो परिवार तनावग्रस्त हो जाता है.पारिवारिक तनाव से परिवार के संवेदनशील रिश्तों में दरार एवं दरकन् पैदा हो जाती है जिससे छोटी-छोटी बातों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर कलह एवं कहासुनी जैसी उलझनें खड़ी कर दी जाती हैं. सुन्दर व सुरम्य पारिवारिक वातावरण व्यंग्य और तानों का दंगल बन जाता है.
वैयक्तिक एवं पारिवारिक स्तर पर संपदा व संपति के सुनियोजन एवं सुव्यवस्था के अभाव में आर्थिक तनाव का जन्म होता है. उपभोक्तावादी अपसंस्कृति के कारण अपव्यय एवं जीवनशैली की अनियमितता में वृद्धि हुई है,जिससे यह संकट और भी गहरा हुआ है.सामाजिक तनाव समाज के विभिन्न घटकों,समूहों एवं वर्गों के बीच तालमेल के न होने से उत्पन्न होता है.आज का व्यक्ति , परिवार व समाज तनाव के इस विघटन,टूटन एवं दरकन् से ग्रस्त हैं. व्यक्ति हो या समाज,आज ये इस कदर तनावग्रस्त हैं की उन्हें अपना भार भी असह्य लग रहा है. वे अपने ही बोझ से दबे-कुचले किसी तरह अपनी गुजर-बसर कर रहें हैं.
तनाव परिस्थिति से नहीं मनः स्थिति से उपजता है.अगर ऐसा नहीं होता तो विपरीत एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आशा,उत्साह एवं उमंग की परिकल्पना नहीं की जा सकती. जीवट के धनियों एवं मनीषियों ने प्रतिकूलताओं में जीवन की राह खोजी है,अपने गंतव्य,लक्ष्य को प्राप्त किया है.सूरदास,अष्टावक्र,सुकरात आदि मनीषियों ने शारीरिक विकृति को हिनताजन्य तनाव नहीं माना और इसी समाज में उत्कर्ष व सफलता की बुलंदियों को स्पर्श किया.सन्त तुकाराम का पारिवारिक जीवन तनाव के घनघोर कुहाँसों में घिरा हुआ था,परन्तु वे इस कुहासा-हताशा के आवरण को चीरकर भक्ति की भावधारा में सदा सरोबार रहते थे.कबीरदास के जीवन में आर्थिक तनाव सघन घन बनकर बरसा था, परन्तु प्रभु के अलावा किसी के आगे उनने हाथ नहीं पसारे,याचना नहीं की और अलमस्त एवं आन्नदपूर्वक जिंदगी जीकर दिखा दी.सामाजिक निंदा,अपमान एवं तिरस्काररूपी गहन आंधी-तूफान के बीच मीराबाई ने कृष्णभक्ति की ज्योति जलाई. विपरीत परिस्थितियों में इन महामानव ने जितना कर दिखाया,उतना तो सामान्य एवं सहज परिवेश में भी संभव नहीं है. इसका एकमात्र कारण है,मनः स्थिति की सुदृढ़ता-सशक्तता. अतः तनाव परिस्थितियों में नहीं दुर्बल व अशक्त मनः स्थिति में वास करता है. मनीषियों व मनस्वियों को यह स्पर्श नहीं कर पाता है.
तनावजन्य मनोविकारों का आक्रमण केवल दुर्बल व कमजोर मानसिकताओं पर होता है. परिस्थिति तो सबके लिए समान होती है.एक ही परिस्थिति में रहने वालों में से संकल्पवान अपने इच्छित लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है और विकल्प तलाशने वाला केवल विकल्प तलाशते रह जाता है. परिस्थितिजन्य तनाव ही प्रमुख व प्रबल होता तो एवरेस्ट के शिखर पर चढ़ा नहीं जा सकता था . जिसका मन परिस्थिति से तालमेल नहीं बैठा पाता उसी के अन्दर तनावजन्य विकृतियाँ अपना जाल बुनती हैं. ऐसे व्यक्ति का तंत्रिकातंत्र मन के आवेग को संभालने हेतु असमर्थ होता है.कष्ट-कठिनाइयों का हल्का झोंका भी इन्हें तार-तार कर देता है.
तनाव मुख्य रूप से नर्वस सिस्टम को प्रभावित करता है. तनाव से यह तंत्रिकातंत्र अत्यंत सक्रिय हो जाता है. इसकी सक्रियता हृदयगति एवं शर्करा के स्तर को बढ़ाने में सहायक होती है. इससे घबराहट होती है एवं सिर भारी रहता है. ऐसी अवस्था में नकारात्मक विचार उठते हैं और मन में निराशा-हताशा के बादल मंडराने लगते हैं.
तनाव मन में उत्पन्न होता है.अतः तनाव से मन प्रभावित होता है. तनावजन्य नकारात्मक
एवं निषेधात्मक विचारों से शरीर की प्रतिरक्षात्मक प्रणाली पर भी विपरीत असर पड़ता है. तनाव की अवधि
में श्वेत रूधिर कोशिकाओं की सहज सक्रियता कम हो जाती है.ये कोशिकाएँ शरीर की रोगों से रक्षा करती हैं तथा शरीर को स्वस्थ एवं निरोग बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती हैं,परन्तु तनाव इस प्रतिरक्षात्मक
प्रणाली की मुस्तैदी को कम कर रोगों को प्रवेश करने का अवसर प्रदान करता है.
तनाव से मन में कई प्रकार के मनोविकार अपना स्थायी आवास बना लेते हैं. तनाव
से चिड़चिड़ापन पैदा हो जाता है. ऐसे व्यक्तियों का मानसिक संतुलन लगभग गड़बड़ा जाता है,परिणामस्वरूप नींद न आना, हताशा-निराशा,कल्पनाओं में खोए रहना, डरना आदि मनोरोगों का प्रादुर्भाव होता है. ऐसे लोगों में निर्णय करने की क्षमता नहीं होती है.
तनाव प्रबन्धन का प्रथम सूत्र है- वैचारिक खुलापन अर्थात आग्रह ,पूर्वाग्रह का अभाव . अच्छे विचारों को स्वीकृति एवं समर्थन देना चाहिए.इसी के आधार पर सहयोग- सदभाव की भूमि तैयार होती है. सहयोग से स्वार्थवृति मिटती है और सेवा का भाव पनपता है,जिससे अपना विश्वास प्रगाढ़ होता है. विश्वास ही विकास का मूल मंत्र है,उन्नति - प्रगति का साधन सोपान है. इस स्थिति में आकर ही स्वायत्तता की परिकल्पना की जा सकती है और स्वतंत्र रूप से अपनी योजना को कार्यरूप प्रदान किया जा सकता है.इसी में आंतरिक चेतना के परिष्कार तथा
वाह्या उन्नति की समस्त संभावनाएँ सन्निहित हैं.संभावना जब मूर्तरूप लेती है तो प्रामाणिकता के रूप में अभिव्यक्ति पाती है.
प्रामाणिकता आत्मविश्वास को जन्म देती है, तभी महान कार्य हेतु स्वयं का योगदान सम्भव हो सकता है और दूसरों का सहयोग मिल सकता है.तनाव प्रबंधन के इन सूत्रों में तनाव का समाधान समाहित है.इसके साथ आवश्यक है सर्वशक्तिमान ईश्वर के प्रति श्रद्धा-आस्था की भावना. ईश्वर सर्वसमर्थ है, वह हमारी सभी समस्याओं का समाधान ,हताशा के कुहासे में ज्योतिर्मय पथ प्रदर्शक है.
वह हमारे तनाव का निवारक भी है. वह हमारे सभी मनोविकारों के सघन जंजाल को काटकर उत्साह,आनंद एवं प्रकाश से भर सकता है.अतः उसकी स्मृति को हृदय में बनाए रखने के लिए गायत्री मंत्र की एक माला का न्यूनतम जप करना चाहिए.प्रत्येक दिन अपने नये जीवन का आत्मबोध एवं प्रत्येक रात्रि अपनी मृत्यु का अनुभव तत्त्वबोध भी तनावमुक्ति के लिए रामबाण साधन है. यही तनाव का एकमात्र निदान है और उच्चस्तरीय जीवन का पाथेय पथ भी है.
साभार :- अखण्ड ज्योति
पूरा परिवेश पश्चिमकी भेंट चढ़ गया है.उसे संस्कारित,योग,आयुर्वेद का अनुसरण कर हम अपने जीवनको उचित शैली में ढाल सकते हैं! आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक
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